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Maharashtra Ke Santo Ka Hindi Kavya (महाराष्ट्र के सन्तों का हिन्दी काव्य)

32.00

Author Prabhakar Sdashiv 'Pandit'
Publisher Uttar Pradesh Hindi Sansthan
Language Hindi
Edition 1st edition, 1991
ISBN -
Pages 184
Cover Paper Back
Size 13 x 1 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code UPHS0031
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Description

महाराष्ट्र के सन्तों का हिन्दी काव्य (Maharashtra Ke Santo Ka Hindi Kavya) इस ग्रन्थ के लेखक डा. प्रभाकर सदाशिव पण्डित जी मराठी भाषा के साथ ही संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी, आदि कई भाषाओं के विद्वान हैं। जैसा कि प्रायः विद्वानों में दोष होता है, वे अपनी विद्या में स्वंय इतने मस्त और प्रसन्न रहते हैं कि पुस्तक लिखने में उन्हें रुचि ही नहीं रहती। अतएव बड़ा आग्रह करने पर हमें उनसे यह पाण्डित्यपूर्ण शोध ग्रंथ प्राप्त हो गया। महाराष्ट्र के संन्तों की हिन्दी पद्य वाणी पर दो-तीन छोटे ग्रंथ हैं पर उनमें इन सन्तों की जीवनी भी नही हैं, पद्य रचना भी थोड़ी सी और प्रायः टीका रहित है। डा. प्रभाकर सदाशिव पंडित जी ने इस ग्रंथ में केवल चुने हुए सन्तों की वाणी दी है। उनका जीवन चरित्र, उनके जीवन की तथा ज्ञान प्राप्त करने की पूरी कथा भी दे दी है। विद्वान लेखकों ने केवल उन्हीं सन्तों को चुना है जो महाराष्ट्र की परम्परा में सर्वोच्च कोटि के पाये जाते हैं अन्यथा महाराष्ट्र के महान उपदेशकों में १९ नाम प्रसिद्ध है जैसे महदाइस उपाम्बा। (मृत्यु १३०७ ई.) मुकुन्दराज (११२८ से ११९६ ई.) नामदेव (१२७०-१३५० ई.) एकनाथ (१५३३-१५९८ ई.) तुकाराम (१५२९-१५७२ ई.) समर्थगुरु रामदास (१६०८-१६८१) शिवदीन केसरी (१६९३-१६७२ ई.) अमृतराज (१६९८-१७५३ ई.) देवनाथ (१७५८-१८२१ ई.) दयालनाथ (१७८८-१८३६) विष्णुदास (१८४३ में जन्म) गुलाबराव महाराज (१८८०-१९२१ ई.) तुकडो जी (१९१०-१९६६ ई.) श्री रामकृष्ण धोवा करतालकर (१७४४-१८२४ ई.) आदि। इन गणना से जिन संतों का ही परिचय तथा हिन्दी वाणी हैं, वह सूची से स्पष्ट है।

सन्त उसे कहते हैं जिसके अन्तस्तल में वैराग्य तथा निगुर्ण ब्रह्म विराजते हों। महाराष्ट्र के सन्तों की सबसे विचित्र महिमा यह है कि वे कबीर के समान केवल निगुर्ण उपासक ही नहीं थे। वे प्रायः सभी अद्वैतवादी होते हुए भी सगुण उपासना तथा भक्ति को भी प्रतिपादित करते थे तथा अधिकांश विठोवा (विष्णु, श्रीकृष्ण, श्रीराम-हनुमान) तथा शक्ति के उपासक थे पर निष्काम भाव से। इनके सभी काव्य, रचनाएँ गाने योग्य तथा भिन्न राग रागनियों में भी है-असावरी, काफी, (दीपचन्दी) भैरवी, सोरठी, घनासरी, गोड आदि राग विधमान हैं। मीरा (१६०३-१६६० ई) या सूरदास (मृत्यु १६२०) के पदों के समान। इन पदों से यह भी प्रकट है गोस्वामी तुलसी दास के बहुत पहले ही वाल्मीकि के राम महाराष्ट्र सन्तों के प्रिय उपास्य थे तथा अधिकांश की वाणी में कबीरदास (१४५६-१५५७ ई.) की छाप भी है। महाराष्ट्र में कबीर इतने लोकप्रिय थे कि सन्त जसक्त (मृत्यु १६७३ ई.) के पद “ऐसा राम मीठ मोहि लागा” में कबीर की पूरी ध्वनि है।

१९०२ में प्रकाशित मराठी पुस्तक “कबीर दास गाथा” में किसी महाराष्ट्रीय कबीर के १२२ पद तथा उनके पुत्र कपाल के ५५ पद हैं। यह निश्यच नहीं कहा जा सकता कि किसी मराठी कवि ने कबीर तथा जमाल की रचना का अनुवाद किया होगा। हठयोग के साथ भक्ति तया सगुणोपासना भी करने वाले संतों की अनूठी वाणी में बडा रस है-यदि मोरा “बसों मेरे नैनन में नन्दलाल” चिल्लाती हैं तो जन जसवन्त हिन्दी में कहते हैं- रघुनाथ सांचेप्रीति बाँधी, होय कैमो होयरे।

महाराष्ट्र के संतों के विषय में, उनके विचार प्रवाह से भी यह स्पष्ट है कि वहां की सत परम्परा दो महान योगियों से निस्सृत है- दत्तात्रेय तथा नाथ सम्प्रदाय से। दत्तात्रेय ऋषि आंत्र को पत्नी अनुसूया के पुत्र थे जो तपस्या के वर से प्राप्त हुए थे। इसीलिए उनका नाम दत्त हुआ। उनमें तीनों महादेवों के गुण तथा या अंश विराजमान थे-ब्रहमा, विष्णु तथा महेश के अस्तु वे दत्तात्रेय कहलाये। आदि नाथ से प्रादुर्भूत नाथ सम्प्रदाय के पंचम गुरु गोरखनाथ थे। उन्होंने अवश्य दक्षिण भारत में भ्रमण किया होगा। उनकी शिष्य परम्परा चली होगी। ज्ञानदेव ने भी अपने गुरुओं की श्रेणी में गोरखनाथ का नाम दिया है। मल्लिकार्जुन से वापस आकर एक शैलशिखर पर मैंने भगवती पार्वती की दिव्य प्रतिमा देखी है। कथा है कि शंकर से रुष्ट होकर पार्वती वहां आकर बैठ गयीं। शंकर का भी वहाँ आना वर्जित करने के लिए यह श्राप दिया था कि जो उस शिखर पर पैर रखेगा वह स्त्री हो जायेगा। बड़ी कठिनाई से वह आप वापस लिया गया। वहीं से खड़े होकर घोर जंगल में नीचे एक दीपक टिर्माटमाता हुआ दिखाई पड़ा।

मुझे बतलाया गया कि वह गुरु गोरखनाथ की समाधि है जहाँ अखण्ड दीप जल रहा है। आश्चर्य होता है कि उस घने जंगल में कौन जाकर दीप जलाता है पर वास्तव में अखण्ड ज्योति है। भारत में विशेषकर उत्तर भारत में, राजस्थान में भी, गुरु गोरखनाथ की समाधि बतलायी जाती है। कौन असली है कौन जाने पर बारहवी सदी के इस सन्त ने अवश्य समूचे उत्तर भारत को प्रभावित किया होगा। अतएव महाराष्ट्र के सन्तों ने इनसे हठयोग तथा निर्गुण उपासना ली होगी। दत्तात्रेय से वैदिक उपासना तथा कबीर नानक (१४६९-१५३९ ई.) के पद भी वहाँ प्रचलित हुए होंगे। इनके अतिरिक्त इन सन्तों को आत्मज्ञान तथा सगुण उपासना का क्रेन्द जिनमे विठोवा (विष्णु) हो गये और उनके दो रूप रामकृष्ण उजागर हुए । विठोवा को ही ब्रहन का स्वरूप माना गया है यहाँ तक कि सन्त नामदेव जिनकी वाणी ने कबीर तक को प्रभावित किया था यह हैं ई में वोठल, उभै वीठल, वोठल विदु संसार नहीं।”कबीर के गुरु रामानन्द ने उत्तर भारत में प्रचार किया था। विठोबा-पण्ढरपूर के विठ् उल की उपासना में नाथ सम्प्रदाय का “अलख निरंजन” मत विलीन हो गया था। आषाढ़ तथा कार्तिक की एकादशी को नियमित रूप से विठोबा को यात्रा कर (वारी) उपासना के नियम से हो महाराष्ट्र में “वारीकरी” सम्प्रदाय का उदय तथा विकास हुआ है।

यह विशेषता महाराष्ट् के इन महापुरुषों की ही है कि वे अद्वैतवाद, विशिषाद्वैत तथा द्वैत तीनों को मिलाकर चलते हैं। अतः जन साधारण के लिए अधिक बोधगम्य हैं तथा इससे सबके बहुत निकट हैं। जब नामदेव के शिष्य गोदा ने हिन्दी में महाराष्ट्र भाषां में पहला भाग अभंग छन्द की रचना की तो वे हम हिन्दी भाषी के और भी निकट आ गये। महाराष्ट्र की सन्त परम्परा में गुरु का जितना महत्व हैं उतना हमें कबीर, दादू (१५४४-१६०३) आदि के वचनों में मिलता है।

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