Uttar Prachin Bharatiya Itihas Lekhan (उत्तर प्राचीन भारतीय इतिहास लेखन)
₹95.00
Author | Dr. Vishudhananad Pathak |
Publisher | Uttar Pradesh Hindi Sansthan |
Language | Hindi |
Edition | 1st edition, 2007 |
ISBN | 978-8189989-01-9 |
Pages | 211 |
Cover | Paper Back |
Size | 14 x 1 x 22 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | UPHS0004 |
Other | Dispatched in 1-3 days |
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उत्तर प्राचीन भारतीय इतिहास लेखन (Uttar Prachin Bharatiya Itihas Lekhan) भारतीय संस्कृति के वैशिष्ट्य की एक प्रमुख पहचान यह भी है कि इसके विलक्षण विस्तार में जीवन के हर क्षेत्र को सम्यक् समादर एवं सम्मान मिला है। दर्शन हो या अध्यात्म, साहित्य हो या कला, इतिहास हो या राजनय ज्ञान का हर क्षेत्र इसकी व्यापक परिधि में समाता गया। स्वाभाविक है कि ऐसे में ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में शोथ और अध्ययन की आवश्यकता कभी कम नहीं हुई। संस्कृति की इस विविधतापूर्ण पृष्ठभूमि में ऐतिहासिक परिदृश्यों की पहचान एवं प्रस्तुति भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। ‘उत्तर प्राचीन भारतीय इतिहास लेखन’ पुस्तक इस सन्दर्भ में एक स्तुत्य उपक्रम है।
विज्ञ पाठक अवगत ही हैं कि पुराणों की परम्परा से जुड़ा भारतीय इतिहास लेखन सातवीं सदी में बाणभट्ट कृत ‘हर्षचरित’ के साथ ठोस रूप लेता दिखता है। इसी समय ऐसी रचनाओं का क्रम भी चल निकला, जिनमें विभिन्न दरबारी कवियों ने अपने शासकों की उपलब्धियाँ प्रशंसात्मक रूप में लिखीं और अनायास ही इसमें इतिहास के तत्त्व भी आते गये। कालांतर में इन रचनाओं को ‘चरित काव्य’ की संज्ञा से अभिहित किया गया। ‘कल्हण’ की ‘राजतरंगिणी’ इस परम्परा का शीर्ष है, जिसमें कश्मीर के शासकों का छः-सात सौ वर्षों का निष्पक्ष इतिहास क्रमबद्ध रूप में उपलब्ध है। कश्मीर में आश्चर्यजनक रूप से भारतीय इतिहास लेखन व्यापक स्तर पर फला-फूला। वहाँ ऐसे ही कई अन्य ग्रंथ भी मिलते हैं। उत्तर प्राचीन काल में जैन विद्वानों ने भारतीय इतिहास लेखन को ठोस आधार दिया। इन विद्वानों में हेमचन्द्र प्रमुख थे, जिन्होंने १२वीं सदी में कई चालुक्य शासकों का शासनकाल निकट से देखा-परखा था। कई अन्य जैन विद्वानों ने ‘चरित काव्य’ के साथ-साथ ‘प्रबन्ध काव्य’ भी लिखे। इनमें १४वीं सदी के आचार्य मेरुतुंग व राजशेखर आदि उल्लेखनीय हैं। १५वीं सदी में चन्द्रशेखर व नयचन्द्र सूरि भी परम्परा को आगे बढ़ाते दिखते हैं।
प्रस्तुत पुस्तक ‘उत्तर प्राचीन भारतीय इतिहास लेखन’ में उक्त सभी प्राचीन पुस्तकों की न केवल सविस्तार पड़ताल की गयी है, अपितु तत्कालीन अभिलेखों, प्राचीन सिक्कों व अन्य साक्ष्यों द्वारा भी सम्पूर्ण आकलन को अधिकाधिक वैज्ञानिक बनाने का प्रयास भी किया गया है। यह भी प्रसन्नता का विषय है कि इस पुस्तक के माध्यम से सम्राट हर्षवर्धन से लेकर मुगलों के पूर्व तक के भारतीय इतिहास के विभिन्न स्रोत ग्रंथों पर आधिकारिक सामग्री प्रस्तुत करने का एक सराह्य उपक्रम किया गया है। भारतीय इतिहास के स्रोत सम्बन्धी विषय पर हिन्दी में तथ्यपूर्ण पुस्तक लेखन के लिए मैं सुप्रसिद्ध इतिहासकार और वयोवृद्ध विद्वान डॉ. विशुद्धानन्द पाठक के प्रति हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ। उन्होंने जिस अथक परिश्रम एवं समर्पित निष्ठा से इस महत्त्वपूर्ण पुस्तक के प्रणयन के समय सम्बन्धित अंग्रेजी पुस्तकों, उनके अनुवाद व अन्य उपयोगी प्रकाशनों का अवगाहन किया है तथा उनसे अपने विशिष्ट निष्कर्ष निकाले हैं, उनके सापेक्ष यह प्रयास और भी अधिक महत्त्वपूर्ण एवं उपयोगी बन गया है। आशा है, न केवल प्राचीन भारतीय इतिहास के छात्रों, अपितु जागरूक पाठकों एवं विद्वानों के मध्य भी इस पुस्तक को वही स्नेह और सम्मान मिलेगा, जो इतिहास-मर्मज्ञ डॉ. विशुद्धानन्द पाठक जी की अन्य पुस्तकों को समय-समय पर मिलता रहा है।
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