Bhasha Vigyan Ki Bhumika (भाषाविज्ञान की भूमिका)
₹250.00
Author | Acharya Devendra Nath Sharma |
Publisher | Radhakrishna Prakashan |
Language | Hindi |
Edition | 2022 |
ISBN | 978-81-7119-743-9 |
Pages | 388 |
Cover | Paper Back |
Size | 14 x 0.5 x 21 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | RKP0001 |
Other | Dispatched In 1 - 3 Days |
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भाषाविज्ञान की भूमिका (Bhasha Vigyan Ki Bhumika) बात सन् 1954 के अगस्त की है। इंग्लैंड से स्वदेश लौटते समय जब मैं प्रोफेसर जे. आर. फ़र्थ (लन्दन विश्वविद्यालय के भाषाविज्ञान विभाग के यशस्वी अध्यक्ष) से अन्तिम बार मिला तो उन्होंने भाषाविज्ञान के विविध पक्षों पर हिन्दी में पुस्तकें लिखने का स्निग्ध आग्रह किया। उनका आग्रह एक प्रकार से आदेश था। भाषाविज्ञान-सम्बन्धी विचार-विमर्श के प्रसंग में जब कभी मैं पाश्चात्य विचारों के समानान्तर भारतीय विचारों को रखता तो वे उनकी सूक्ष्मता एवं गम्भीरता से आह्लादित हो उठते और प्रायः इस बात पर आक्रोश व्यक्त करते कि भारत से भाषाविज्ञान का अध्ययन करने के लिए विदेश आने वाले विद्यार्थी उन विचारों से परिचित नहीं होते। इंग्लैंड या फ्रांस के अन्य विद्वानों के साथ भी मुझे अनेक बार विचार-विमर्श करने का अवसर मिला और मैंने सदा उन्हें भारतीय भाषावैज्ञानिक उपलब्धियों से प्रभावित किया। उन विद्वानों में विशेषतः उल्लेख्य हैं-लन्दन विश्वविद्यालय के रूसी भाषा और साहित्य विभाग के अध्यक्ष प्रोफेसर डब्ल्यू. के. मैथ्यूज़ । प्रोफ़ेसर मैथ्यूज़ का अंग्रेज़ी, रूसी, फ्रांसीसी, जर्मन, ग्रीक, लातिन और एस्तोनी भाषाओं पर तो समान अधिकार था ही, भाषाविज्ञान के क्षेत्र में भी उनकी देन महत्त्वपूर्ण है। रूसी भाषा के अध्ययन के सिलसिले में मैं सहज ही उनका स्नेह-भाजन बन गया था। उनकी इच्छा थी कि मैं रूसी और संस्कृत व्याकरणों का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करूँ। रूसी, हिन्दी या संस्कृत की भाषिक समस्याओं पर हम घंटों विचार-विनिमय करते ।
मेरे विचारों को समाविष्ट करते हुए उन्होंने हिन्दी की ‘ध्वनि-प्रक्रिया’ पर एक लेख लिखा जो पेरिस से प्रकाशित होने वाली ‘ल मेत्र फ़ोनेतीक’ नामक प्रसिद्ध पत्रिका में 1954 में प्रकाशित हुआ था। उनकी उदारता एवं गुणग्राहिता ऐसी थी कि लेख का प्रारम्भ ही उन्होंने मेरी चर्चा से किया था। इन दोनों विद्वानों के, जो अब इस लोक में नहीं हैं, स्नेह, सद्भाव और सौजन्य को मैं कभी नहीं भूल सकता। तो, मैं प्रोफ़ेसर फ़र्थ से प्रतिश्रुत हुआ था कि भाषाविज्ञान पर लिखूँगा, किन्तु दुर्योग ऐसा रहा और परिस्थितियाँ इतनी प्रतिकूल रहीं कि चाहता-चाहता भी अपना वचन पूरा न कर सका। यहाँ प्रत्यूहों की चर्चा अनावश्यक है, पर दुर्योग और सुयोग में इतना अन्तर है कि जो काम विगत बारह वर्षों में नहीं हो सका, वह दो महीनों में हो गया। इस पुस्तक का लेखन और मुद्रण साथ-साथ हुआ है। यह इसलिए सम्भव हो सका कि पूरी पुस्तक बोलकर आशुलिपि में लिखायी गयी है, अन्यथा अपनी लेखनी से दो वर्षों में भी इसे पूरा कर पाता, इसमें सन्देह है।
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