Paschatya Darshan Ka Itihas Vol. 1 (पाश्चात्य दर्शन का इतिहास भाग-1)
₹115.00
Author | Dr. Dayakrishna |
Publisher | Rajasthan Hindi Granth Academy |
Language | Hindi |
Edition | 6th edition, 2010 |
ISBN | 978-81-7137-767-1 |
Pages | 390 |
Cover | Paper Back |
Size | 13 x 2 x 21 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | RHGA0040 |
Other | Book Dispatch in 1-3 Days |
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पाश्चात्य दर्शन का इतिहास भाग-1 (Paschatya Darshan Ka Itihas Vol. 1) दर्शन का इतिहास दो नित्र चाराजों में बँटा प्रतीत होता है। एक वह जो पीस में शुरू होकर धामुनिक पश्चिमी राष्ट्रों धौर उनसे प्रभावित देशों में फैत्री है और दूसरी जो बेद और उपनिषदों से शुरू होकर भारत की भूमि में बाज भी किस हद तक विद्यमान है। इन दो प्रमुख धाराओं के बनाना एक धन्य पारा भी दृष्टिगोबर होती है जिसके प्रवत्त क कन्फ्यूजियम और लाजोत्ने समझे जाते हैं। परन्तु इस तीसरी बारा का इतना बलवती न होना इसके ‘बौद्धिक चिन्तन का बद्ध रूप है जिसके प्राधार पर बाज दर्शन की परिभाषा दी जाती है। किसी विशिष्ट परम्परा के होने के लिए यह आवश्यक है कि उसके मूल में कोई ऐसी महान् और समय रष्टि हो जो उसको निरन्तर सोचती रहे धोर कम से कम संस्कृति के क्षेत्र में यह भी इतना ही धावश्यक है कि उस परम्परा का धन्य परम्पराधों से कोई अधिक गहरा सम्बन्ध रहा हो। वैशिष्ट्य के लिए इस प्रकार दो बीजों की आवश्यकता होती है। एक परम्परा, दूसरी अलगाव धाज के युग में संस्कृतियाँ एक-दूसरे के सम्मुख बड़ी है और जहां के कुछ एक-दूसरे में समान बातें पाती है, वहां उनको एक दूसरे के वैशिष्ट्य पर भी आश्चर्य होता है।
परिश्रमी दार्शनिक परम्परा का मूल स्रोत एजियन समुद्र के किनारे के के द्वीप है जो ‘एजियन थाईलैण्ड’ के नाम से पुकारे जाते हैं और उनकी मूल दृष्टि उस बौद्धिक धनुभूति में है जो गणित के ज्ञान को आदर्श के रूप में देखती है। गति को ज्ञान का धादर्श इस लिये माना जाता है कि उसके निष्कर्ष पूर्णतया धमदिन्य धौर, इसीलिये, सार्वभौम होते हैं। इसके साथ ही साथ वे शुद्ध बुद्धि-या है और जो इन्द्रियों से जात जगत् है उस पर बनि- बार्यतया मागू होते हैं। गलित की इन चार विशेषताओं ने पश्चिम की दार्शनिक बुद्धि को शुरू से ही प्रभावित किया है क्योंकि जान की जिज्ञासा का लक्ष्य भी प्रायः ऐसे ही जान में माना जाता है जो धमदिव्य और मार्वभौम हो, मुद्ध बुद्धि के द्वारा जाना जा सकता हो धोर जो अनिवार्य रूप में जगत् के लिये भी सत्य ठहरता हो।
इसको आश्चर्य की ही बात समझा जायेगा कि दर्शन को भारतीय परम्परा में गणित को कोई विशेष स्थान अभी भी प्राप्त नही है। बुद्धि से जो बहस होता है और इन्द्रियों से जो प्राप्त होता है उसमें भेद तो एक प्रकार से सब सस्कृतियों में मिलता है पर जिस प्रकार से यह भेद ग्रीक दार्शनिकों ने रखा है वह अपने बाप में एक घनूठी चीज है। दूसरी ओर ग्रीस में दर्शन को प्रावक रूप में मनुष्य की सामाजिक धोर राजनीतिक स्थिति से भी सम्बन्धित माना गया धोर इसका मूल कारण यह था कि योक दार्घनिकों ने मनुष्य के वैशिष्ट्य को सामाजिक या राजनीतिक प्राणी के रूप में देखा।
समाज या राज्य से अलग उनकी रष्टि में मनुष्य या तो पशु या या देवता। इसीलिये राजनीति घोर समाज दर्शन के अभिन्न विषय रहे, क्योंकि मनुष्य अपना धादर्श जीवन एक धादर्श समाज बोर राज्य में ही बिता सकता है। वैसे तो चीनी परम्परा में भी मनुष्य प्रधानतः साम जिक प्राणी माना गया पर वहाँ समाज की इकाई को गृहस्थ के रूप में लिया गया, धोर जहां तक राज्य का सम्बन्ध था, मनुष्य स्वतन्त्र नामरिक न होकर केवल एक राज्य में रहने वाले प्राणी के रूप में देखा गया। ग्रीम का दार्शनिक विचार इस बात से प्रभावित था कि उनके देश में गणराज्य भी थे। संस्कृति में क्षेत्र में. इनकी उपलब्धियाँ आश्चर्यजनक थी घोर इसके साथ ही साथ वे अन्य राज्यों में संघर्ष में भी सफल हुए। शायद यही कारण रहा होगा कि पीस के दार्शनिक विचारकों ने समाज और राजनीति पर दार्शनिक ढंग से विचार किया और मनुष्य के स्वतन्त्र नागरिक का को उसकी मनुष्यता का अभिन्न अंश माना। पश्चिमी दर्शन के मूल में मनुष्य के विषय में जो यह दोहरी दृष्टि है, वह ही उसके 2500 साल के दीर्घकालीन इतिहास को एक दिशा देती रही धोर उसकी सजीवता का मूल स्रोत रही।
इस प्रकार जहाँ एक ओर ज्ञान का मानदण्ड गणित में पाया गया, वहीं दूसरी धोर मनुष्य को सामाजिक और राजनीतिक प्राणी के रूप में समझने के कारण मूल चिन्तन ने एक ऐसी दिशा भी जहाँ आदर्श मनुष्य, धादर्श समाज धौर धादर्श राज्य से अनिवार्य रूप से सम्बन्धित था। बुद्धि विचार की इन दोनों ही दिशाओं में केन्द्रीय विन्दु का काम करती रही है। एक ओर वह अपने शुद्ध बौद्धिक रूप में ऐसे आदर्श प्रत्ययों को यहण करती है जो केवल उसी के द्वारा ग्रहण किये जा सकते हैं बौर जिनकी सत्यता-प्रेसत्यता का प्रश्न बस्तु जगत् से पूर्णरूपेण स्वतन्त्र होता है। दूसरी धोर, बुद्धि ही उन आदर्श मूल्यों को ग्रहण करती है जिनको मनुष्य अपने व्यक्तिगत जीवन में और राजनीतिक और सामाजिक जीवन में चरितार्थ करने की चेष्टा करता है। यहाँ एक ऐसा मूलगत भेद है जिस पर ध्यान देना घावश्यक है। शुद्ध बुद्धि से प्राप्त गणितीय ज्ञान का जगत् से कोई धावश्यक सम्बन्ध प्रतीत नहीं होता, परन्तु मूल्यबोध, चाहे वह ब्यक्ति के स्वयं के सम्बन्ध में हो या समाज और राज्य के सम्बन्ध में, उसकी सार्थकता वहीं तक प्रतीत होती है जहाँ तक वह मनुष्य को प्रपनी चरितार्थता के लिए कर्म में प्रवृत्त करता है।
पाश्चात्य दर्शन के समग्र इतिहास की इस पुस्तक में विभिन्न लेखकों से उनकी रुचि और विशेषज्ञता के अनुसार दार्शनिकों पर लेख लिखवाये गये हैं। प्रो. दयाकृष्ण ने, जो कि स्वयं एक उत्कृष्ट चिन्तक और दार्शनिक लेखक थे, इस ग्रंथ के लिए यथासंभव उत्कृष्टतम दार्शनिक लेखकों का सहयोग प्राप्त किया था। इस पुस्तक का छठा संस्करण स्वयं इसकी उपयोगिता का प्रमाण है।
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