Raghuvansh Mahakavyam Tritiya Sarg (रघुवंशमहाकाव्यम् तृतीया सर्गः)
₹50.00
Author | Acharya Narmdeshwar Tripathi |
Publisher | Bharatiya Vidya Sansthan |
Language | Sanskrit & Hindi |
Edition | 1st edition, 2010 |
ISBN | - |
Pages | 96 |
Cover | Paper Back |
Size | 12 x 1 x 18 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | BVS0160 |
Other | Dispatched in 1-3 days |
10 in stock (can be backordered)
CompareDescription
रघुवंशमहाकाव्यम् तृतीया सर्गः (Raghuvansh Mahakavyam Tritiya Sarg)
तृतीय सर्ग का सारांश
महर्षि वशिष्ठ के आश्रम से अयोध्या लौटकर नन्दिनी की कृपा से महारानी सुदक्षिणा ने रघुकुल की परम्परा को बनाये रखने के लिए गर्भ धारण किया। उसने मिट्टी भक्षण शुरु किया, यह विचार कर कि मेरा पुत्र समस्त पृथ्वी का एकत्र राज्य इन्द्र की तरह करेगा। महाराज दिलीप ने गर्भवती रानी की सम्पूर्ण दोहद-इच्छाओं की पूर्ति की, क्योंकि उनके लिए स्वर्ग में भी कोई वस्तु अप्राप्य नहीं थी।
समय पूर्ण होने पर महारानी ने पुत्ररत्न को जन्म दिया। लोकपालों के अंश से उत्पन्न उस पुत्र के तेज से जन्म लेते ही दीपकों की रोशनी फीकी पड़ गयी, शीतल, मन्द और सुगन्धित वायु बहने लगी, देवताओं ने दुन्दुभियाँ बजायीं । मेरा यह पुत्र अप्रतिहत गति वाला होगा, इसलिए गमनार्थक ‘रघु’ इस नाम से पुत्र को दिलीप ने विभूषित किया। वह शिशु शुक्लपक्ष के चन्द्रमा के समान बढ़ने लगा। उचित समय पर राजा ने उसका यज्ञोपवीत-संस्कार कर विद्याध्ययन के लिए भेजा। रघु ने समस्त विद्याओं को पढ़कर धनुर्वेद की शिक्षा अपने पिता अद्वितीय धनुर्धर दिलीप से ली। अनन्तर महाराज ने रघु का विवाह संस्कार किया।
महाराज रघु को युवराज पद पर अभिषिक्त कर अत्यधिक दुर्धर्ष हो गये। रघु की संरक्षता में उन्होंने निन्यानबे अश्वमेघ यज्ञ किया। अनन्तर सौवें अश्वमेघ का घोड़ा रघु की संरक्षता में पुनः छोड़ा गया। इस बार इन्द्र ने लुप्त हो सबके सामने ही घोड़े को चुरा लिया। अकस्मात् ही नन्दिनी वहाँ उपस्थित हो गयी। रघु ने नन्दिनी के मूत्र से अपने आँखों को धोकर देखा कि स्वयं इन्द्र घोड़े को चुराकर पूर्व दिशा में जा रहे हैं।
रघु ने इन्द्र को ऐसा कुकृत्य करते हुए देख उनसे कहा-हे देवेश ! आप यज्ञभाग भोक्ताओं में प्रधान हैं, फिर आप इस घोड़े को क्यों ले जा रहे हैं ? कृपा कर घोड़े को लौटा दें। परन्तु इन्द्र ने रघु की एक भी न सुनी और धमकाया। धमकी को रघु ने सहन नहीं किया और इन्द्र को युद्ध के लिए ललकारा। घमासान लड़ाई हुई। यहाँ तक कि रघु ने इन्द्र की भुजा घायल कर दी, धनुष की डोरी काट डाली तथा इन्द्र के रथ की पताका काट डाली। यह देव इन्द्र ने रघु पर वज्र को छोड़ा।
वज्र के लगते ही रघु भूमि पर गिर पड़ा, परन्तु क्षणमात्र में ही उसकी वेदना से विरत हो उठ खड़ा हुआ। रघु की दीग्ता देख इन्द्र खुश हो गये और घोड़े को छोड़कर अन्य वर माँगने के लिए रघु से बोले। रघु ने यह वर माँगा कि मेरे पिता सौवें अश्वमेघ यज्ञ के फल को प्राप्त करें और यह सन्देश आपके दूत के द्वारा ही मेरे पिता को सुनाया जाय। इन्द्र तथास्तु कहकर चले गये और रघु पराजित सा अयोध्या लौटा। दिलीप ने पहले से ही देवेन्द्र के दूत से रघु की वीरता सुन प्रसन्न हो अपने पुत्र रघु को गले लगाया और उन्हें राजा बनाकर वानप्रस्थाश्रम में प्रवेश कर गये।
Reviews
There are no reviews yet.