Vishnav Shaiv Aur Anya Dharmik Mat (वैष्णव, शैव और अन्य धार्मिक मत)
₹183.00
Author | Ramkrishna Gopal Bhandarkar |
Publisher | The Bharatiya Vidya Prakashan |
Language | Hindi |
Edition | 1st edition, 2019 |
ISBN | 978-93-88415-07-1 |
Pages | 216 |
Cover | Paper Back |
Size | 14 x 2 x 22 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | TBVP0014 |
Other | Dispatched in 1-3 days |
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वैष्णव शैव और अन्य धार्मिक मत (Vishnav Shaiv Aur Anya Dharmik Mat) हिन्दूधर्म न तो ईसाई और मोहम्मदीय धर्मों के समान पैगम्बरीय ही है और न बौद्ध धर्म के समान रहस्यवादी ही। इस रूप में हिन्दूधर्म विलक्षण है। यह एक अविच्छिन्न परम्परा की ऐतिहासिक परिणति है। यह ऐतिहासिक विकास आवयविक है-एक वृक्ष के समान, जिसमें पूर्ववर्ती तत्त्व परवर्ती रूप में न्यस्त होकर विकसित होते जाते हैं। इतिहास की इस सनातन प्रक्रिया के कारण हिन्दू धर्म युगपत् रीति से संरक्षणशील और गतिशील है। इसमें प्राचीनता के साथ-साथ अर्वाचीनता अर्धनारीश्वर के समान एक-दूसरे से संमिश्र है।
प्रायः सभी पारम्परिक संस्कृतियों का अन्तःप्राण धर्म है। वैज्ञानिक विकास, सामाजिक व्यवस्थाओं का प्रसार, दार्शनिक विवेचन का आधार और सांसारिक जीवन का मेरुदण्ड धर्म के केन्द्र से सम्बद्ध हैं। अतः ऋग्वेदीय वाक् के समान संस्कृति भी अपने आन्तरिक स्वरूप को धर्म के परिप्रेक्ष्य में प्रकट करती है। मृद्भाण्ड एवं धातुनिर्मित उपकरण संस्कृति के केवल एकांश को उद्भिन्न कर सकते हैं, किन्तु संस्कृति का विशेषक तो धार्मिक अनुष्ठान, देवमूर्ति अथवा अनुष्ठान में प्रयुक्त उपादान ही हो सकता है। उदाहरण के लिए मेही (दक्षिण बलूचिस्तान) के मृद्भाण्ड उसी प्रकार नीललोहित हैं, जिस प्रकार झूकर-झंकर संस्कृतियों के। किन्तु चञ्झुमुख मृण्मय मूर्तियाँ मेही-संस्कृति की अपनी विशेषतायें हैं। इन चञ्झुमुख मूर्तियों के पृष्ठ पर अंकित पंखों से तथा ऋग्वेद 10, 114 के वर्णन के आधार पर उनका सुपर्ण के साथ तादात्म्य हो सकता है। चमस के ऊपर सारमेय का अंकन भी महत्त्वपूर्ण है। अतः मेही-संस्कृति का नीललोहित मृद्भाण्ड- संस्कृति के रूप से वर्णन संस्कृति का वैसा परिचायक नहीं हो सकता जैसा सुपर्ण- सारमेय प्रसंग में उसका अध्ययन।
श्री रामकृष्ण गोपाल भण्डारकर का प्रस्तुत ग्रन्थ हिन्दूधर्म के इतिहास में पथिकृत् है। 1905 ई० में फ्री चर्च कॉलेज लिटरेरी सोसाइटी ऑफ बाम्बे के तत्त्वावधान में शोध की नवीन दिशाओं पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने धार्मिक इतिहास की ओर भी इंगित किया था। उन्होंने स्वयं इस दिशा में कार्य आरम्भ किया और इन्साइक्लोपीडिया ऑफ इण्डो-आर्यन रिसर्च ग्रंथमाला के लिए ‘वैष्णविज्म शैविज्म एण्ड माइनर रिलीजस सिस्टम्स’ का लेखन प्रारम्भ किया। इसका 1911 ई० में समापन और 1913 में प्रकाशन हुआ।
इस ग्रंथ के लेखन-काल में तुलनात्मक भाषा-विज्ञान और धर्मों के तुलनात्मक अध्ययन का प्रचलन था, इसलिए स्वाभाविक था कि भण्डारकर ने धर्म की तुलनात्मक अध्ययन-विधि से प्राप्त निष्कर्षों को दृष्टि में रखकर हिन्दू धर्म का विकास देखा। ऋग्वेदीय देवताओं को केवल प्राकृतिक उपकरणों का मानवीकरण मानना इस प्रवृत्ति का निदर्शन है। इस अन्तराल में धर्म के अध्ययन की विधियाँ अनेकशः विकसित हुईं और सम्प्रति धर्म का समाज-वैज्ञानिक अध्ययन जनप्रिय हो गया है। प्रस्तुत ग्रन्थ से लेकर जी०एस० घुर्रे के ‘रिलीजन एण्ड मैन’ तक धर्म के अध्ययन-विधि का एक लम्बा सोपान है। भण्डारकर के इस ग्रन्थ के मूल प्रकाशन के बाद कुछ नवीन पुरातात्त्विक सामग्री भी प्राप्त हुई है। सैन्धव सभ्यता के प्रकाशन ने भारतीय संस्कृति के अध्ययन में एक नया आयाम जोड़ा है। फिर भी इस ग्रन्थ के निष्कर्ष अद्यावधि मान्य है।
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