Vishnu Dharmottara Puran ka Kavya Shastriya Bhag (विष्णुधर्मोत्तरपुराण का काव्यशास्त्रीय भाग)
₹270.00
Author | Rujhun Bansal |
Publisher | Vidyanidhi Prakashan, Delhi |
Language | Sanskrit Text With Hindi Translation |
Edition | 2019 |
ISBN | - |
Pages | 268 |
Cover | Hard Cover |
Size | 14 x 2 x 22 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | VN0044 |
Other | Dispatched in 1-3 days |
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विष्णुधर्मोत्तरपुराण का काव्यशास्त्रीय भाग (Vishnu Dharmottara Puran ka Kavya Shastriya Bhag) संस्कृत काव्यशास्त्र के इतिहास में नाट्यशास्त्र के लेखक आचार्य भरत और काव्यालङ्कार के रचयिता आचार्य भामह के मध्य लगभग ३००-४०० वर्षों का दीर्घ कालव्यवधान है। जो काव्यशास्त्रीय तत्त्व नाट्यशास्त्र में बीज-रूप में उपन्यस्त थे, वही काव्यालङ्कार में अपने पूर्ण प्रकर्ष के साथ प्रतिफलित होते दृष्टिगोचर होते हैं। इस अन्तराल में वे कौन-से आचार्य थे, जिन्होंने इन तत्त्वों का पल्लवन और परिवर्धन किया, ये तथ्य आज भी अज्ञात ही हैं। इस अन्धकारमय युग में एकमात्र विष्णुधर्मोत्तरपुराण एक दिव्य तेजःपुञ्ज के रूप में हमारे समक्ष उपस्थित होता है, जिसके लगभग एक सहस्र श्लोकों में काव्य एवं नाट्य सम्बन्धी सिद्धान्तों का विशद विवेचन किया गया है। यह अत्यन्त आश्चर्य का विषय है कि काव्यशास्त्र की इस लुप्त कड़ी को जोड़ने वाली इतनी महत्त्वपूर्ण रचना की ओर विद्वानों का ध्यान कम गया है जबकि इसके अत्यन्त उत्तरवर्ती ग्रन्थ अग्निपुराण पर अपेक्षाकृत अधिक कार्य हुआ है। यद्यपि इस सन्दर्भ में प्रो० आर० सी० हाजरा की ‘स्टडीज् इन दा उपपुराणाज्’ में वि० ध० पु० का भी उल्लेख किया गया है परन्तु काव्यशास्त्रीय पक्ष पर उनका भी ध्यान कम ही रहा है।
डा० प्रिया शाह ने इस भाग का अंग्रेजी अनुवाद करके इस ओर विद्वानों का ध्यान आकृष्ट भी किया। प्रो० काणे ने भी काव्यशास्त्र के इतिहास में इसका उल्लेख किया है। डा० रविशङ्कर नागर एवं डा० रमण कुमार शर्मा के स्वतन्त्र शोधपत्रों में कुछ उल्लेखनीय सामग्री उपलब्ध होती है तथापि वह मात्रा में इतनी स्वल्प है कि इस विषय पर स्वतन्त्र शोधकार्य की आवश्यकता अभी भी बनी हुई थी।
प्रकृत ग्रन्थ इसी आवश्यकता की पूर्ति हेतु एक विनम्र प्रयास है। साहित्यशास्त्र में विष्णुधर्मोत्तरपुराण के योगदान का समीक्षात्मक मूल्याङ्कन करने में आचार्य भरतादि के ग्रन्थों में निहित विपुल सामग्री का आश्रयण किया गया है। इस समग्र विवेचन को भूमिका के आठ अध्यायों में समाहित किया गया है। वि० ध० पु० के सामान्य परिचय के अन्तर्गत इसकी विषयवस्तु, पाण्डुलिपियों और संस्करणों आदि का प्रतिपादन करते हुए इसके काल-निर्णय पर विचार किया गया है। इसे ४०० ईसा से लेकर ५०० ईसा के मध्य की रचना कहा जा सकता है। तदुपरान्त इसमें वि०ध०पु० के काव्यशास्त्रीय भाग की विशिष्टता, शैली एवम् इसकी विषयवस्तु अध्यायक्रम में व सङ्क्षिप्त रूप में प्रस्तुत की गई है। प्रबन्ध के द्वितीयाध्याय के काव्यस्वरूप निरूपण में काव्यप्रयोजन, काव्यस्वरूप गद्य-पद्य रूप काव्य के दो भेदों, महाकाव्य एवं द्वादश रूपकों के लक्षणों पर विचार किया गया है। इसका तृतीय अध्याय वि०ध० पु० में निरूपित २६ प्रहेलिकाओं को समर्पित किया गया है, जिनमें उनके स्वरूप की स्पष्टता हेतु उदाहरणों को दण्डीकृत काव्यादर्श से ग्रहण किया गया है। ये प्रहेलिकाएँ पाण्डित्यप्रदर्शन के उस युग का एक दर्पण ही हैं। नाट्य के महनीय तत्त्व रस का उसके उद्बोधक भावों सहित विवेचन प्रबन्ध के चतुर्थाध्याय में किया गया है। पञ्चमाध्याय में उपमा सहित अठारह अलङ्कारों के स्वरूप की व्याख्या है। अर्थालङ्कारों के निरूपण में सर्वप्रथम रूपक का उल्लेख तथा अन्य प्रमुख अलङ्कारों की भांति उपमा का उल्लेख न किया जाना, ये सब तथ्य पुराणकार को कश्मीरी परम्परा का प्रतिनिधि सिद्ध करते हैं। महाकाव्य-लक्षण में वर्णित बारह काव्यदोषों का अन्य आचार्यों के मतों के साथ तुलनात्मक अध्ययन इसके षष्ठाध्याय में निरूपित है। प्रकीर्ण विषयों में वि० ध० पु० में वर्णित छन्द, प्राकृतभाषा, अभिधानकोश तथा लिङ्गानुशासन जैसे विषयों का समावेश किया गया है, जो उस समय छात्रकवियों के लिए नितान्त आवश्यक समझे जाते थे।
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