Tattva Jigyasa (तत्त्व जिज्ञासा)
₹85.00
Author | Dr. Gopinath Kaviraj |
Publisher | Vishvidyalaya Prakashan |
Language | Hindi |
Edition | 2014 |
ISBN | 978-93-5146-036-7 |
Pages | 95 |
Cover | Paper Back |
Size | 14 x 2 x 22 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | VVP0131 |
Other | Dispatched in 1-3 days |
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तत्त्व जिज्ञासा (Tattva Jigyasa) प्रस्तुत ग्रन्थ जिज्ञासुगण की जिज्ञासा तथा उसका समाधान रूप है। अगम पच पर अग्रसर हो रहे साधक के अन्तरतम में अनेक जिज्ञासा का उदय होना स्वाभाविक है। यह जिज्ञासा शंका नहीं है। शंका को पृष्ठभूमि में विश्वास का तत्वतः अभाव होता है। इसी प्रकार प्रश्न का उदय तर्कबुद्धि के कारण होता है। जिज्ञासा में न तो शंकाजनित विश्वास की शिथिलता रहती है, न प्रश्नों की पृष्ठभूमि में स्थित तर्क बुद्धि के लिए ही वहाँ कोई स्थान है। जिज्ञासा शुद्ध विश्वास तथा आश्चर्य वृत्ति पर आधारित है। अगम तत्त्व को कोई आश्चर्य से देखता है, आश्चर्य से सुनता है और कोई उसे देख-सुन कर भी नहीं समझ पाता। ऐसी स्थिति में जिज्ञासा का उदय होता है। जिज्ञासु सत्-तर्क का आश्रय लेकर श्रद्धापूर्ण हृदय से पूर्ण विश्वास के साथ नतशिर होकर प्रातिभ प्रत्यक्ष ज्ञानसम्पन्न महापुरुष के समक्ष अपनी जिज्ञासा प्रस्तुत करता है। यही ‘तत्त्वजिज्ञासा’ की तथा समाधान के उपक्रम की रूपरेखा है।
इस जिज्ञासा का समाधान महापुरुषगण जिज्ञासु की स्थिति तथा उसके उत्कर्ष के तारतम्य से करते हैं। एक जिज्ञासु के प्रश्न का जो समाधान है, वही प्रश्न जब अन्य जिज्ञासु करता है तब उसमें कुछ समाधानजनित विभिन्नता हो जाती है। यह विभिन्नता अधिकारीभेद के कारण है। अतः अनुत्सन्धित्सु अध्येता को इस विभिन्नता में विषयवस्तु के प्रति अपनी समन्वयी मेधा का उपयोग करना आवश्यक है। विभिन्नता से व्यामोहित होकर विपरीत धारणा बना लेना उचित नहीं है।शास्त्रों में भी शंका अथवा प्रश्न के स्थान पर जिज्ञासा को ही श्रेयस्कर माना गया है। ‘अथातो ब्रह्मजिज्ञासा’, ब्रह्म जिज्ञासितव्य है। जिज्ञासा बुद्धिजनित नहीं है। ब्रह्म को बुद्धि से नहीं जाना जा सकता। उसको जानने के लिए अन्तरतम से, हृदय से जिस विकलता का उद्रेक होता है, वह है जिज्ञासा। यह बुद्धिजनित नहीं है। इसका उन्मेष होता है अन्तराकाश से, ब्रह्म के अधिष्ठान हृदय से जिसे उपनिषदों में दहराकाश की संज्ञा प्रदान की गयी है। विज्ञजन कहते हैं कि जब तक देहात्मबोध है, जीव स्वयं को परिच्छिन्न प्रमाता रूप से अनुभव करता है, तब तक यथार्थ जिज्ञासा हो ही नहीं सकती। परिच्छिन्न प्रमातृत्व रूप देहात्मबोध उच्छिन्न होते ही यथार्थ जिज्ञासा का उदय तथा उसके समाधानार्थ महापुरुष का संश्रयत्व प्राप्त होना अवश्यम्भावी है। इस मणिकाञ्चन योग द्वारा ही तत्त्वबोध हो सकेगा।
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