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Hans Atma Katha Ank (हंस आत्मकथा अंक)

213.00

Author Premchand
Publisher Vishwavidyalay Prakashan
Language Hindi
Edition 2014
ISBN 978-81-7124-631-1
Pages 196
Cover Pepar Back
Size 18 x 2 x 24 (l x w x h)
Weight
Item Code VVP0042
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Description

हंस आत्मकथा अंक (Hans Atma Katha Ank) उपन्यास सम्म्राट मुंशी प्रेमचंद के सम्पादन में हंस का प्रकाशन मार्च, 1930 में वसंत पंचमी के दिन प्रारम्भ हुआ था। देशप्रेम, साहित्यिक अभिरुचि एवं साहित्य सेवा की अदम्य लालसा ने उन्हें काशी से एक साहित्यिक पत्रिका निकालने के लिए प्रेरित किया। प्रकाशन के पूर्व उन्होंने अपने मित्र सुप्रसिद्ध कवि जयशंकर प्रसादजी को पत्र लिखा- “काशी से कोई साहित्यिक पत्रिका न निकलती थी। मैं धनी नहीं हूँ, मजदूर आदमी हूँ, मैंने हंस निकालने का निश्चय कर लिया है।” हंस का नामकरण जयशंकर प्रसादजी ने ही किया था।

हंस के प्रकाशन से एक नये युग का सूत्रपात हुआ। राष्ट्र एवं राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रति उनकी निष्ठा हंस के प्रत्येक अंक से परिलक्षित होती है। गांधीजी के विचारों से प्रभावित प्रेमचंदजी ने अपनी बीस वर्षों की नौकरी छोड़कर देश की स्वतन्त्रता हेतु ‘कलम के सिपाही’ के रूप में अपना जीवन समर्पित कर दिया। जैसा कि स्वयं उन्होंने इस ‘आत्मकथा अंक’ के पृष्ठ 166 पर अपने आलेख में लिखा है-” यह 1920 की बात है। असहयोग आन्दोलन जोरों पर था। जलियानवाला बाग का हत्याकांड हो चुका था। उन्हीं दिनों महात्मा गांधी ने गोरखपूर का दौरा किया। गाती मियाँ के मैदान में ऊँचा प्लेटफार्म तैयार किया गया। दो लाख से कम का जमाव न था। क्या शहर, क्या देहात, श्रद्धालु जनता दौड़ी चली आती थी। ऐसा समारोह मैंने अपने जीवन में कभी न देखा था। महात्माजी के दर्शनों का यह प्रताप था, कि मुझ जैसा मरा हुआ आदमी भी चेत उठा। उसके दो-ही-चार दिन बाद मैंने अपनी 20 साल की नौकरी से इस्तीफा दे दिया।

हंस गांधीयुग की प्रमुख साहित्यिक मासिक पत्रिका थी। अनेकानेक प्रतिभाशाली लेखकों, कवियों, नाटककारों, कहानीकारों को जन्म देने, तराशने, निखारने में इसने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इतना ही नहीं इस पत्रिका ने प्रगतिवादी आन्दोलन को जन्म दिया। इसके द्वारा प्रेमचंदजी ने हिन्दी भाषा ही नहीं स्वतन्त्रता की भी लड़ाई लड़ी। हंस अपनी उग्रतर नीतियों के कारण ब्रिटिश सरकार की आँखों की किरकिरी बना हुआ था। परिणामस्वरूप ब्रिटिश सरकार ने जब हंस पत्रिका को जब्त करने का आदेश दिया तो सम्पादक मुंशी प्रेमचंद झुके नहीं। इण्डियन प्रेस आर्डिनेन्स 1930 के अन्तर्गत हंस को कई बार जमानत देने का सरकार ने आदेश दिया पर प्रेमचंद ने बीच-बीच में कई बार उसका प्रकाशन स्थगित करना ही उचित समझा।

1932 ई० में प्रकाशित हंस का यह विशेषांक ‘आत्मकथा अंक’ दशकों से अप्राप्य था, पाठक ऐसे ही स्तरीय, विलुप्त हो चले, पठनीय साहित्य की तलाश में हैं। वर्तमान समय में इस ग्रन्थ की उपादेयतां कहीं अधिक बढ़ जाती है। आज पाठकों, अध्येताओं की बहुप्रतीक्षित उत्कट अभिलाषा पूर्ण हो रही है। आज हम यत्र-तत्र आत्मकथा और संस्मरणों का जो दौर देखते हैं उसका जनक था हंस का यह ‘आत्मकथा अंक’। जयशंकर प्रसाद, रायसाहब लाला सीतारामजी, पं० रामचन्द्र शुक्ल, पं० रामनारायणजी मिश्र, पं० विनोदशंकर व्यास, श्री शिवपूजन सहायजी, श्री रायकृष्णदासजी, श्री धीरेन्द्र वर्मा, गोपाल राम गहमरी (सम्पादक: जासूस), बद्रीनाथ भट्ट, सद्‌गुरुशरणजी अवस्थी, डॉ० धनीरामजी ‘प्रेम’ (सम्पादक चाँद), ठाकुर श्रीनाथ सिंहजी (सम्पादक: बालसखा), श्री गंगाप्रसादजी उपाध्याय (सम्पादक वेदोदय), प्रेमचंद बी०ए० आदि अनेकानेक हिन्दी के मूर्धन्य विद्वानों के आत्मकथानक (जीवन-वृत्त) आज के पाठकों के लिए संजीवनी का कार्य करेंगे।

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