Bhasha Vigyan Ki Ruprekha (भाषा विज्ञान की रुपरेखा)
₹293.00
Author | Prof. Uma Sankar Sharma |
Publisher | Chaukhambha Viswabharati |
Language | Hindi |
Edition | 2022 |
ISBN | 978-93-91730-05-5 |
Pages | 412 |
Cover | Paper Back |
Size | 14 x 4 x 22 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | CVB0002 |
Other | Dispatched in 1-3 days |
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भाषा विज्ञान की रुपरेखा (Bhasha Vigyan Ki Ruprekha) भाषाविज्ञान अपेक्षाकृत नया ज्ञान-क्षेत्र है जिसे सभी भाषा-विषयों के पाठ्यक्रम में रखा गया है। एक ओर सामान्य भाषाविज्ञान है जो भाषामात्र को विषय बनाकर उसके चतुर्दिक् परिक्रमा करता है तथा पाठकों को उपयोगी भाषा-विवेचन की क्षमता देता है, तो दूसरी ओर किसी भाषा का ऐतिहासिक तथा तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करके उस भाषा को वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में समझने की दिशा भी प्रदान करता है। यह कार्य जितना सरल लगता है वस्तुतः उतना सरल है ही नहीं। भाषा-विज्ञान के विविध पक्षों पर यूरोपीय और अमेरिकी विज्ञानों द्वारा असंख्य पुस्तकें लिखी गई हैं, प्रतिवर्ष प्रकाशित हो रही हैं जिनका अनुशीलन तथा भारतीय सन्दर्भ में ग्रहण करना सामान्य अध्येता के लिए असाध्य कार्य है।
भारतीय विश्वविद्यालयों में स्नातकोत्तर कक्षाओं में कहीं-कहीं इसे स्वतन्त्र विषय के रूप में मान्यता है तो कहीं भाषा-साहित्य विभाग में एक-दो पत्रों के रूप में पाठ्यक्रम में रखा गया हैं। यह भी सुना था कि कहीं भाषाविज्ञान के कुछ अध्यायों को स्नातक (प्रतिष्ठा) के पाठ्यक्रम में भी निर्धारित किया गया है। सर्वत्र उपयुक्त पुस्तकों की खोज की जाती है। इसके अतिरिक्त अधिसंख्य राज्यों की सिविल सर्विस परीक्षा के लिए निर्धारित पाठ्यक्रम में भी सामान्य भाषाविज्ञान और संस्कृत भाषाविज्ञान के विषय समाविष्ट हैं जिनके परीक्षार्थियों की विकलता का मैंने प्रत्यक्ष अनुभव किया है। अंग्रेजी में लिखे दस-बीस ग्रन्थों को पढ़ने का परामर्श देना तो आसान है किन्तु उनसे संबद्ध पाठकों की ज्ञान-वृद्धि भले ही हो तात्कालिक समस्या का सत्वर समाधान तो नहीं हो सकता। आज ‘द्वादशभिर्वर्षेर्व्याकरणं श्रूयते’ का समय नहीं अपितु ‘लघुनोपायेन कार्यसिद्धिः’ का युग है। इसकी पूर्ति मैंने इस अभिनव कृति में करने का तुच्छ प्रयास किया है।
स्वाधीनता-प्राप्ति के बाद से हिन्दी में अधिकाधिक वैज्ञानिक और तकनीकी पुस्तकें प्रकाशित होने लगी हैं। जो मौलिक रूप से हिन्दी में लिखी जाती हैं वे अपेक्षाकृत कम सामग्री देने पर भी भारतीय पाठकों के लिए उपयुक्त है किन्तु जो सरकारी अकादमियों द्वारा अंग्रेजी अन्यों के रूपान्तर के रूप में प्रस्तुत की गई हैं उनमें कुछ को छोड़कर प्रायः दुर्बोध्य है, विदेशी परिप्रेक्ष्य का भारतीयकरण किये बिना उन्हें ‘यथामूल’ रख दिया गया है। अनुवाद को रचनात्मक होना चाहिए, लगे कि हम मूलग्रन्थ का आनन्द ले रहे हैं। डॉ. भोलाशंकर व्यास द्वारा जो टी. बरो की पुस्तक (The Sanskrit Language) का अनुवाद ‘संस्कृत भाषा’ के नाम से हुआ है, वह आदर्श अनुवाद है। भाषा-विज्ञान से संबद्ध कुछ अंग्रेजी अन्धों के हिन्दी अनुवाद अच्छे आये हैं किन्तु जब मूल पुस्तकें ही विशेष विषयों पर केन्द्रित है तो उनसे सामान्य पाठकों और जिज्ञासुओं का कल्याण होने से रहा।
हर्ष का विषय है कि भाषा-विज्ञान पर सामान्य दृष्टि से ग्रन्व-लेखन की परम्परा हिन्दी में विगत साठ-सत्तर वर्षों से चली है। डॉ. बाबूराम सक्सेना, डॉ. मंगलदेव शास्त्री, हॉ भोलानाथ तिवारी, आचार्य देवेन्द्रनाथ शर्मा और डॉ. कपिलदेव द्विवेदी ने अच्छी पुस्तके इस विषय में लिखी हैं। विशेष रूप से अन्तिम दोनों पुस्तकों में पहली अपनी रोचक शैली के कारण और दूसरी पाठ-सामग्री के कारण उल्लेखनीय है। इनके गुणों की उपेक्षा संभव नहीं। अब ये भी कुछ पुरानी हो गई हैं। ऐसी स्थिति में समय के अनुकूल लिखी गई इस अभिनव पुस्तक की उपादेयता स्वीकार्य होगी, ऐसा मेरा विश्वास है। मेरे ध्यान में पाटक-वर्ग हैं।
इस पुस्तक के तीन खण्ड है-भाषा खण्ड, भाषाविज्ञान खण्ड तथा भारतीय आर्यभाषा खण्ड। प्रथम खण्ड भाषा के विभिन्न पक्षों पर प्रकाश डालता है जो सामान्य भाषा-विज्ञान के विषयों में प्रायः विवेचित होता रहा है किन्तु मूलतः भाषाविषयक ही है। द्वितीय खण्ड भाषाविज्ञान के प्रमुख अंगों का है जिनमें प्रत्येक के शीर्षक में ‘विज्ञान’ है। तृतीय खण्ड भारतीय आर्यभाषा भाषा के के अन्तर्गत संस्कृत का भाषाशास्त्रीय परिचय विशेष रूप से देता है। इसी में भाषाशास्त्र का इतिहास भी दिया गया है। आशा है, यह विभाजन पसंद किया जाएगा।
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