Chakradatta Of Sri Chakrapanidatta (चक्रदत्त)
₹574.00
Author | Dr. Sailaja Srivastva |
Publisher | Chaukhambha Orientalia |
Language | Sanskrit & Hindi |
Edition | 2021 |
ISBN | 978-81-949809-7-1 |
Pages | 848 |
Cover | Hard Cover |
Size | 18 x 5 x 24 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | CO0347 |
Other | Dispatched in 1-3 days |
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चक्रदत्त (Chakradatta Of Sri Chakrapanidatta)
गकारः सिद्धिदः प्रोक्तः रेफः पापस्य हारकः। उकारो विष्णुः अव्यक्तः त्रितयात्मागुरुः परः ।।
आयुर्वेद का मुख्य प्रयोजन है धातुसाम्य “धातुसाम्य क्रिया चोक्ता तन्त्रस्यास्य प्रयोजनम्” (च.सू. १/ ५३) अर्थात् विषमावस्था को प्राप्त धातुओं (दोषों) को साम्यावस्था में लाना क्रिया है, और यही आयुर्वेद का मुख्य प्रयोजन है। इस क्रिया द्वारा आयुर्वेद के प्रयोजनद्वय “स्वस्थस्य स्वास्थरक्षणमातुरस्य विकारप्रशमनं च” (च.सू. ३०/२६) की सिद्धि हो जाती है। इनमें से प्रथम स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य संरक्षण हेतु आयुर्वेद में स्वस्थवृत्त के अन्तर्गत दिनचर्या, रात्रिचर्या, ऋतुचर्या एवं आचार रसायन आदि का विस्तृत वर्णन किया गया है, जिसके अनुपालन से स्वस्थ व्यक्ति अपने स्वस्थ्य का संरक्षण कर सकता है। यदि किन्हीं कारणों से दोष विषमावस्था को प्राप्त हो जाय अर्थात् व्यक्ति अस्वस्थ हो जाय तो विषमावस्था को प्राप्त दोषों को साम्यावस्था में लाने की क्रिया की जाती है, यही चिकित्सा है। इस उद्देश्य से आयुर्वेदीय संहिताओं में स्वतन्त्ररूप से चिकित्सास्थान का प्रणयन किया गया है। परवर्तीकाल में स्वतन्त्र चिकित्सा ग्रन्थों का प्रणयन प्रारम्भ हुआ। इस श्रृंखला में ‘चक्रदत्त’ का अपना एक विशिष्ट स्थान है।
‘चक्रदत्त’ चक्रपाणिकृत चिकित्सा विषयक एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है जो ‘चक्र संग्रह’ या ‘चिकित्सा संग्रह’ नाम से भी जाना जाता है। यह ग्रन्थ वृन्दकृत सिद्धयोग के आधार पर लिखा गया है, जैसाकि ग्रन्थकार ने ग्रन्थ की पुष्पिका में स्वयं ही लिखा है। इस ग्रन्थ के पूर्व सिद्धयोग को वैद्यसमाज में अत्यधिक सम्मान प्राप्त था। चक्रपाणि में यद्यपि वृन्दकृत सिद्धयोग को अपने ग्रन्थ का आधार तो बनाया परन्तु इसमें पारम्परिक योगों के साथ अपने नवीन योगों का भी समावेश कर युगानुरूप ग्रन्थ का प्रणायन किया। यथा वृन्दमाधव में रसौसधियों का उल्लेख नहीं किया है। चक्रदत्त ने सर्वप्रथम रसौषधियों का वर्णन किया है। पारद एवं गन्धक शोधन विधि चक्रपाणि की देन है। कज्जली निर्माण विधि का प्रथम वर्णन चक्रदत्त में ही प्राप्त होता है। नागार्जुनीय लौह शास्त्र पर आधारित अनेक योगों का वर्णन किया है। यथा भल्लातक लौह, नवायस लौह, मण्डूर, पुनर्नवा मण्डूर, लौह भस्म, नवायस रसायन, अमृतसार रसायन, ताम्रभस्म, स्वर्ण रजतादि योग आदि विशिष्ट योग हैं। रसपर्पटी प्रथम चक्रपाणि ने ही निबद्ध किया है, जिसका प्रयोग ग्रहणीरोग में किया जाता है- ‘रस पर्यटिका ख्याता निबद्धा चक्रपाणिना’ (च.द. ४/९१) इसके साथ ही ग्रहणी रोग में ताम्रयोग का भी वर्णन है।
जान्तव द्रव्यों का प्रयोग चक्रदत्त में प्राप्त होता है, यथा भूनाग का प्रयोग, हृद्रोग एवं कटिशूल में श्रृंगभस्म का प्रयोग और परिणाम शूल में शंखभस्म का प्रयोग किया गया है। इसके अतिरिक्त कुछ नवीन चिकित्सा विधियां भी वर्णित है यथा ज्वर में काञ्जिकासिक्त वस्त्र का धारण, मूत्राघात में मूत्रमार्ग में कर्पूरचूर्ण प्रविष्ट कराना आदि। चक्रदत्त में सिराव्यध का विस्तृत वर्णन किया गया है। रसौषधियों के प्रयोग की दृष्टि से चक्रदत्त एक ऐतिहासिक ग्रन्थ है। प्राचीन आचार्यों के पारम्परिक योगों के साथ रसौधियों एवं कुछ अन्य नवीन प्रयोगों के कारण यह अन्य युगानुरूप बनाया गया, जिससे चिकित्सा-जगत में इसकी अत्यधिक ख्याति हुई।
मूलरूप से चक्रदत्त ग्रन्थ के संस्कृत श्लोकों में लिखे होने के कारण अध्यापकों, चिकित्सकों और विद्यार्थियों के लिये बोधगम्य बनाने हेतु अनेक टीकाकारों ने हिन्दी और अंग्रेजी में अनुवाद किया है। विषय को सुगम और स्पष्ट करने हेतु इसकी टीका की गयी है। इसकी विशेषता यह है कि अनेक विषयों के समझ में न आने वाले गूढ़ वाक्यों और द्रव्यों को सारणी के रूप में, द्रव्यों का आंग्ल भाषा और उसके वानस्पतिक नामों को देने का प्रयास किया गया है। इस प्रकार यह चिकित्सा का संग्रह ग्रन्थ है। इसमें जहां तक संभव हो सकता है, प्रचीन मानों के साथ-2 आधुनिक मैट्रिक मानों को भी दिया गया है।
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