Paribhashik Padartha Sangrah (पारिभाषिक पदार्थ संग्रहः)
₹80.00
Author | Dr. Vijay Sharma |
Publisher | Bharatiya Vidya Sansthan |
Language | Sanskrit & Hindi |
Edition | 1st edition, 2004 |
ISBN | 81-87415-57-6 |
Pages | 98 |
Cover | Hard Cover |
Size | 14 x 2 x 21 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | BVS0050 |
Other | Dispatched in 1-3 days |
10 in stock (can be backordered)
CompareDescription
पारिभाषिक पदार्थ संग्रहः (Paribhashik Padartha Sangrah) सभी प्रकार के न्याय-वैशेषिकसम्बद्ध प्रकरण ग्रन्थों में तर्कसंग्रह चिरकाल से विद्वत् समाज में सर्वाधिक प्रतिष्ठित रहा है। इसलिए इसके ऊपर अनेक विद्वानों ने अपनी-अपनी टीकायें लिखीं। एक तर्कदीपिका नाम की टीका तो स्वयं ग्रन्थकार ने लिखी है। जो तर्कसंग्रह पर उपलब्ध कुछ प्रतिष्ठित टीकाओं में अन्यतम है, पश्चात् गोवर्द्धन नाम के विद्वान् ने एक न्यायबोधिनी नाम की टीका लिखी। इसकी शैली नव्य-न्याय वाली है। यह टीका भी पण्डित समाज द्वारा बहुत समादृत है। इनके अतिरिक्त भी नीलकण्ठ आदि की टीकायें मुद्रित और प्रकाशित हैं। इस छोटे से प्रकरण ग्रन्थ पर इतने प्रतिष्ठित विद्वानों द्वारा चिरकाल से अनेक टीकाओं की रचना से यह प्रमाणित है कि न्याय वैशेषिक दर्शन के अनेक प्रकरण ग्रन्थों में तर्कसंग्रह का महत्त्व सर्वाधिक है।
प्रस्तुत तर्कसंग्रहसर्वस्व पण्डित श्रीरामशास्त्रि कुरुगंटि की रचना है। यह कहने के लिए तो तर्कसंग्रह की टीका है, जैसा ग्रन्थकार ने भी प्रारम्भ में कहा है, किन्तु यह तर्कसंग्रह की पंक्तियों की अक्षरानुसारी टीका नहीं है। अपितु तर्कसंग्रह में प्रयुक्त जो पदार्थ है, उनका इसमें (तर्कसंग्रह में) उद्देश किया गया है। उन पदार्थों और उनके साथ संबद्ध अन्य पदार्थों के स्वरूप का न्याय शास्त्र की मान्यता के अनुसार विवरण और विश्लेषण किया गया है। शैली आवश्यकतानुसार सरल भी है और नव्य न्याय की शैली का भी पूर्ण उपयोग किया गया है। यद्यपि ग्रन्थकार इसे जिज्ञासुओं के लिए सुबोध कहते हैं, किन्तु समग्र गन्थ के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता। अधिकतर पदार्थों का विवेचन नव्य-न्याय की जटिल शैली में किया गया है जो वर्तमान शैली में प्रचलित ह्रासोन्मुख अध्यापन के अनुसार कथमपि सुबोध नहीं है। विशेषतः सामान्य कोटि के छात्रों के लिए कुछ विषय तो ऐसे हैं जिनका न्यायशास्त्र से सम्बन्ध होने पर भी तर्कसंग्रह जैसे सरल ग्रन्थ के साथ उन्हें संयोजित करना मूल ग्रन्थ के साथ और इसके अध्येताओं के साथ भी औचित्यपूर्ण नहीं माना जा सकता, किन्तु जिन पारिभाषिक विषयों का इस तर्कसंग्रहसर्वस्व में विवेचन किया गया है वे सब शास्त्रीय और न्याय-वैशेषिक दर्शन के अन्तर्गत है।
प्रसंगवशात् स्थान-स्थान पर दूसरे शास्त्रों के मतों को भी प्रस्तुत किया गया है। ज्ञानों की दृष्टि से इनकी आलोचना नहीं की जा सकती, किन्तु प्रारम्भिक ज्ञान प्राप्त करने वाले तर्कसंग्रह के अध्येताओं के लिए इन विषयों के विवेचन की कितनी उपयोगिता है। यह स्वयं विद्वान् पाठक निर्णय करेंगे। इसके अन्त में कुछ धर्मशास्त्र सम्बन्धी चर्चा भी है जिसका तर्कसंग्रह के साथ कोई साक्षात् सम्बन्ध नहीं, किन्तु इसके अन्त में चूंकि प्रथम संस्करण में वह भी संलग्न था इसलिए इस संस्करण में भी उसे यथापूर्व रख दिया।
Reviews
There are no reviews yet.