Avlupta Siddha Yog Ka Rahasya (अवलुप्त सिद्ध योग का रहस्य)
₹255.00
Author | Divyabandhu |
Publisher | PILGRIMS PUBLISHING |
Language | Hindi |
Edition | 2017 |
ISBN | 978-9350761656 |
Pages | 288 |
Cover | Paper Back |
Size | 14 x 2 x 22 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | PGP0126 |
Other | Dispatched in 1-3 days |
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अवलुप्त सिद्ध योग का रहस्य (Avlupta Siddha Yog Ka Rahasya) अध्यात्म-विमर्श में आस्था और ईश्वर की वैज्ञानिक मीमांसा विभ्रम का महाजाल बनकर रह गयी है। विज्ञान के प्रति अतिवाद आध्यात्मिक मूल्यों की बराबर उपेक्षा करता जा रहा है। विज्ञान भी दो प्रकार का है। एक सूक्ष्म अथवा अमूर्त विज्ञान है। धर्म और दर्शन में इसे आध्यात्मिक विज्ञान माना जाता है। यह मनुष्य के अंतःकरण की उस चेतना का नाम है जिसके माध्यम से मनुष्य को अपने व्यक्तित्व का बोध होता है।
इस विज्ञान का अर्थ अहंकार के अर्थ से कुछ मिलता-जुलता है। इसमें आध्यात्मिक चिंतन की पर्याप्त संभावनाएं होती हैं। कहा जाता है कि इस सूक्ष्म विज्ञान अर्थात् अहंकार-बोध का अतिक्रमण करके ही अध्यात्म का साधक अपने लक्ष्य की ओर उन्मुख होता है। दूसरा आधुनिक विज्ञान है। इसे स्थूल या भौतिक या जड़ विज्ञान भी कहा जाता है। वह भौतिक सत्य को ही सत्य मानता है। यह विश्व में इतना प्रभावशाली हो गया है कि किसी भी विषय, वस्तु या विचार की प्रामाणिकता यही निर्धारित करने लगा है। यह विज्ञान ही दुनिया का विश्वास बन गया है। माना जाता है कि कोई वस्तु या विचार जितना ही वैज्ञानिक है उतना ही सत्य और सटीक है।
यह वैज्ञानिक अतिवाद अब आस्था, अनुभूति और परमात्म साधना में भी दखल देने लगा है। आज के प्रायः सभी अध्यात्म चिंतक अपने को भौतिक विज्ञान-सम्मत सिद्ध करने में अपनी सारी बौद्धिक युक्तियां लगा रहे हैं। परिणाम यह है कि आध्यात्मिक विमर्श के नाम पर जो भी आयोजन हो रहे हैं, पुस्तकें प्रकाशित हो रही हैं, उपदेश-प्रवचन हो रहे हैं वे वैज्ञानिक अतिवाद से दब जाते हैं और छद्म अध्यात्म के रूप में जड़ विज्ञान के विषयों का ही पिष्ट-पेषण होता रहता है। इस परिणाम का भी एक परिणाम यह हो रहा है कि अध्यात्म विद्या, वैज्ञानिक भ्रांति के कारण, विरोधाभास का शिकार होकर जहां का तहां जड़ बनी पड़ी रहती है। इस भ्रांति को दूर करने, इस विरोधाभास को समाप्त करने के बाद ही अध्यात्म विद्या को पुनः गतिशील किया जा सकता है। यह धर्म-चक्र-प्रवर्तन जैसा बड़ा कार्य है यह सुकार्य वही कर सकता है जो अध्यात्म विद्या के साधन और चिंतन दोनों में पारंगत हो। मनीषी साधक श्री दिव्यबन्धु ने इसी उद्देश्य से इस ग्रंथ की रचना की है जिसमें अध्यात्म विद्या के विभिन्न आयामों, स्तरों और प्रक्रिया पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है।
वास्तव में अध्यात्म विद्या बहुत ही सूक्ष्म और सतत गतिशील विद्या है। वह आधुनिक (स्थूल, जड़) विद्या से व्याख्यायित हो ही नहीं सकतीं। उसका चरम लक्ष्य है चेतन प्राणी (साधक) को जड़ता से मुक्त कर चैतन्य में स्थापित करना। इसलिए तत्व चिंतन में जब वैज्ञानिक दृष्टिकोण का हस्तक्षेप होता है तो अध्यात्म प्रायः विमर्श से बाहर हो जाता है, विमर्श में वह विचार का विषय बन ही नहीं पाता, और तत्व चिंतन की सारी बहस बेमानी हो जाती है। इस भटकाव के कारण चैतन्य ईश्वर का कोई ऐसा स्वरूप बन ही नहीं पाता जिसे सब कहीं सर्व-सहमति से स्वीकृत कर लिया जाय। अध्यात्म विद्या, जिसका दूसरा (भारतीय) नाम ब्रह्म विद्या है, का सार्वकालिक, सार्वभौम स्वरूप प्रस्तुत करना वर्तमान काल की सबसे बड़ी समस्या और चुनौती है, क्योंकि इसके समाधान से अन्य सभी समस्याओं के समाधान सुलभ हो जाते हैं।
वस्तुतः अध्यात्म विद्या ही चैतन्य विद्या है। इस विद्या के तीन स्तर हैं-चिंता (जगत्), चेतना (मनुष्य) और चैतन्य। इस क्रम में मनुष्य की स्थिति मध्यगत है। एक और चिंता (जगत्) है, दूसरी ओर चैतन्य और बीच में चेतना (मनुष्य)। चेतना की गति उसकी उन्मुखता पर निर्भर होती है। चिंता बहिर्मुखी होती है। अतः चेतना जब बहिर्मुखी होती है तब उसका नियंत्रण चिंता करती है। वह जैसे-जैसे चेतना को संचालित करती है वैसे-वैसे चलने के लिए चेतना बाध्य होती है। उस स्थिति में मानवीय चेतना की मुक्ति, उसकी स्वतंत्रता या स्वच्छंदता का कोई अर्थ नहीं होता। इसी स्थिति को मानव चेतना का बंधन कहा जाता है। यही मनुष्य की भवबाधा है। इसी बाधा-बंधन से मुक्ति के लिए मनुष्य जप-तप, ध्यान-योग, भजन-कीर्तन आदि करता रहता है। परंतु मुक्ति तभी मिलती है जब मनुष्य अंतर्मुखी साधना के माध्यम से अपनी चेतना को चैतन्य की ओर मोड़ लेता है। चेतना जैसे-जैसे चैतन्योन्मुख होती है वैसे-वैसे चिंता से मुक्त और चैतन्य (ईश्वर) से युक्त हो जाती है और अंततोगत्वा वह पूर्णतया चिंता-मुक्त होकर चैतन्य में ही प्रतिष्ठित हो जाती है।
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