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Shat Chakra Nirupanam (षट्चक्रनिरूपणम्)

233.00

Author Shri Bharata Bhushan
Publisher Chaukhambha Sanskrit Pratisthan
Language Sanskrit Text and Hindi Translation
Edition 2023
ISBN 978-81-7084-076-7
Pages 172
Cover Hard Cover
Size 14 x 2 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code CSP0858
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Description

षट्चक्रनिरूपणम् (Shat Chakra Nirupanam) वैष्णव पांचरात्र आगम की सात्वतसंहिता (२०५८) में चार ही चक्रों का उल्लेख है। वहाँ उसके भाष्यकार ने आधार, नाभि, हृदय और कण्ठ नामक चार स्थानों में स्थित चक्रों की चर्चा की है। बौद्धों के वसन्ततिलक आदि ग्रन्थों में भी चार ही चक्र र्वाणत हैं। नाभि, हृदय, कण्ठ और मूर्धा में इनका स्थान बतलाया गया है और इनको क्रमशः निर्माण, धर्म, संभोग और महासुख चक्र को संज्ञा दी गई है। बौद्धों के ही कालचक्र तन्त्र में इनकी संख्या छः है। ऊपर के चार चक्रों के अतिरिक्त गुह्यचक्र और उष्णीषचक्र को मिला- कर इन छः चक्रों की विशद व्याख्या कालचक्रतन्त्र की विमलप्रभा नामक प्रसिद्ध टीका में मिलती है। विमलप्रभा (पृ० १६९) में १८ चक्रों का भी उल्लेख है। योगिनीहृदय की दीपिका टीका (पृ० ३४-३७) में स्वच्छन्द- संग्रह के प्रमाण से ३२ चक्रों का उल्लेख मिलता है। सुषुम्ना नाड़ी के नीचे और ऊपर रक्त और श्वेत दो सहस्रदल कमल विद्यमान हैं और इनके बीच में अन्य तीस पंकज हैं। दीपिकाकार ने यहाँ केवल नौ चक्रों का वर्णन किया है। योगिनीहृदय ( ३।३०) में नो चक्रों के साथ छः चक्रों का भी उल्लेख मिलता है। यद्यपि नेत्रतन्त्र (७।२८-२९) में भी छः चक्र वर्णित हैं, किन्तु उनकी प्रतिपादन-पद्धति भिन्न है।

इस प्रकार चक्रों की संख्या और स्वरूप के विषय में भारतीय योगशास्त्र एवं तन्त्रशास्त्र के ग्रन्थों में विविधता के दर्शन होने पर भी आजकल ‘श्रीतत्त्वचिन्तामणि’ के षट्चक्रनिरूपण में, सौन्दर्यलहरी और उसकी लक्ष्मीधरा टीका में मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्धि बऔर आज्ञा नामक छः चक्रों को ही मान्यता मिली है। कालचक्र- तन्त्र और उसकी टीका में, योगिनीहृदय और उसकी व्याख्या में तथा नेत्र- तन्त्र में भी चक्रों की इस संख्या को यद्यपि समर्थन मिला है, तो भी इनके स्वरूप, लक्षण बादि के विषय में पर्याप्त मतभेद है। इतना सब होते हुए भी आजकल श्रीपूर्णानन्द परमहंस द्वारा षट्चक्रनिरूपण में प्रदर्शित इनका क्रम और स्वरूप ही प्रायः सर्वत्र मान्य है ।

षट्चक्रनिरूपण : स्वरूप और आधार

इन छः चक्रों का जितना सांगोपांग वर्णन श्रोतत्त्वचिन्तामणि के षट्चक्र- निरूपण में हुआा है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। यहाँ छः चक्रों के स्वरूप का विशद वर्णन करते समय चक्रों के दलों में स्थित वर्षों (बीजाक्षरों) के अतिरिक्त छः डाकिनियों, छः अधिष्ठातृ देवताओं, पाँच भूतों के मण्डलों, चार पीठों, चार लिगों आदि का विवरण देते हुए इनके ध्यान की पद्धति का और उससे उपलब्ध होने वाले फल का भी निरूपण किया गया है। भगवती त्रिपुरा की उपासना कश्मीर, केरल और गौडीय पद्धति से की जाती है। श्रीपूर्णानन्द परमहंस की श्रीतत्त्वचिन्तामणि में उसकी गौडीय पद्धति निरूपित है। प्रस्तुत ग्रन्थ ‘षट्चक्रनिरूपण’ इसका छठा प्रकाश है, अध्याय नहीं । श्रीतत्त्वचिन्तामणि नामक यह सम्पूर्ण ग्रन्थ संस्कृत टीका के साथ कलकत्ता से प्रकाशित हो चुका है। इसके षट्चक्रनिरूपण नामक छठे प्रकाश को और पादुकापंचक को सर जान बुडरफ ने अपने विस्तृत अध्ययन ‘सरपेष्ट पावर’ के परिशिष्ट के रूप में दिया था, किन्तु आजकलः यह अनुपलब्ध है।

षट्चक्रनिरूपण के प्रारंभ में ही बतलाया गया है कि इसकी रचना में तन्त्रशास्त्र का अनुसरण किया गया है। कुण्डलिनीयोग, कुण्डलिनीशक्ति, षट्चक्र आदि का पतंजलि के योगसूत्रों में कहीं उल्लेख नहीं है, किन्तु यह निश्चित है कि कुण्डलिनीयोग प्राचीन भारतीय योग की एक विशिष्ट पद्धति है। आगम और तन्त्रशास्त्र की विभिन्न शाखाओं में इसका वर्णन मिलता है। ‘तन्त्रानुसारेण’ कहकर श्रीपूर्णानन्द इसी तथ्य को स्वीकार करते हैं। कुछ आचार्य ‘अष्टा चक्रा नवद्वारा’ (१०।२।३१) इत्यादि अथर्ववेदीय मन्त्र में कुण्डलिनी योग का उल्लेख मानते हैं। प्रायः सभी आगमिक और तान्त्रिक बाचार्य प्रसुप्तभुजगाकारा, सार्धत्रिवलाकृति, मृणालतन्तुतनीयसी मूलाधार स्थित शक्ति को कुण्डलिनी के नाम से जानते हैं। जिस योगपद्धति की सहायता से इस कुण्डलिनी शक्ति को जगाकर सुषुम्णा मार्ग द्वारा षट्चक्र का भेदन कर सहस्रारचक्र तथा पहुँचाया जाता है और वहाँ उसका अकुल शिव से सामरस्य सम्पादन कराया जाता है, उसी का नाम कुण्डलिनीयोग है। आधारों अथवा चक्रों आदि के विषय में मतभेद होते हुए भी मूलाधार स्थित कुण्डलिनी शक्ति का सहस्रार स्थित अपने इष्टदेव से सामरस्य का सम्पादन सभी मतों में निर्विवाद रूप से मान्य है।

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