Mahapath (महापथ)
₹93.00
Author | Pandit Gopinath Kaviraj |
Publisher | The Bharatiya Vidya Prakashan |
Language | Hindi |
Edition | 2nd edition, 2020 |
ISBN | 978-93-88415-38-5 |
Pages | 136 |
Cover | Paper Back |
Size | 14 x 2 x 21 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | TBVP0016 |
Other | Dispatched in 1-3 days |
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महापथ (Mahapath) इस महापथ का पथिक बनने के लिये किसी साधना की आवश्यकता नहीं है। यह महाकृपा सापेक्ष महामार्ग है। साधना की आवश्यकता है स्थूल तथा सूक्ष्मरूपी स्थिति का अतिक्रमण करने के लिये। शास्त्रों में सूक्ष्म के पश्चात् कारण तथा महाकारण स्थिति का विवरण प्राप्त होता है, वह भी प्रकारान्तर से सूक्ष्म सत्ता का ही आयाम मात्र है। अनुभव के दृष्टिकोण से सूक्ष्मसत्ता का ही सूक्ष्म, कारण तथा महाकारण रूपी स्तर भेद किया गया है। स्थूल जगत् से लेकर महाकारण स्थिति पर्यन्त की गति का जो मार्ग है, वह पथ है। वहाँ तक किसी न किसी मात्रा में उपाय तथा साधना की स्थिति रहती है। शास्त्रों ने पथ की त्रिस्तरीय साधना को आणव उपाय, शाक्तोपाय तथा शांभवोपाय के रूप में विवेचित किया है, परन्तु महापथ की स्थिति में एक विचित्र और अकल्पनीय “अनुपाय” की अवस्था रहती है। यद्यपि शास्त्रकारों ने अनुपाय की विवेचना करने का प्रयास किया है, तथापि वे स्वयं इस निष्कर्ष पर एकमत से प्रतीत होते हैं कि अनुपाय की यथार्थ विवेचना हो ही नहीं सकती। वह अनुभवगम्य स्थिति है। वह अन्तः स्वानुभवपूर्ण, विकल्प से पूर्णतः उन्मुक्त अनिर्वचनीय रसरूपा है। परमतत्त्व इसी रस से सराबोर है और वही अव्यक्त परमतत्व उस रस का उत्स है। इस महाभावरूपी अव्यक्त रस की प्राप्ति किसी उपाय से नहीं होती। इस महापथ पर पग संचार के लिये कोई गति अथवा वेग प्रभावकारी ही नहीं है। रसराज की महाकृपा तथा उनका आकर्षण ही महापथ की महागति का कारण है। इसमें जीव का कोई उपाय कार्यकारी नहीं है। अतः यहाँ पूर्णतः अनुपाय की ही अवस्था रहती है।
स्थूल जगत् में जीव शक्ति के यथार्थ स्वरूप से वियुक्त रहता है। वह संस्कार तथा प्राक्तन एवं क्रियमाण कर्म से ही चालित रहता है। अतः इस स्थिति को शक्ति की प्रसुप्त स्थिति कहा गया है। जब जीव किंचित प्रबुद्ध होकर सूक्ष्म गति की ओर चलने लगता है, तब कहा जाता है कि वह अब पथभ्रान्त नहीं है और पथ पर चल रहा है। अब उसकी शक्ति प्रबुद्ध होकर उसकी अग्रगति का कारण बन जाती है। सूक्ष्म जगत् (सूक्ष्मसत्ता) में चलते समय शक्ति उसके साथ-साथ चलती है, अर्थात् पथ निर्देश कराती है, परन्तु अव्यक्त में आते-आते यह शक्ति साधक जीव में अन्तर्लीन हो जाती है। अब वह जीव यथार्थ शक्तिमान बन जाता है। इस स्थिति के अभाव में, अर्थात् शक्ति की अन्तर्लीनता के अभाव में भाव का उन्मेष हो ही नहीं सकता। जब अन्तर्लीन शक्ति साधक के साथ पूर्ण सामरस्य सम्पन्न हो जाती है, तभी महाभाव का प्रस्फुटन होता है। संक्षेप में इस प्रकारण के सम्बन्ध में इतना ही कहा जा सकता है। इस स्थल पर यह संकेत देना आवश्यक है कि “महापथ” ग्रंथ का यही शेष नहीं है। अभी भी अनेक प्रकरणों पर शब्दांकन का कार्य चल रहा है। आशा करता हूँ कि वह शेषांश “तत्वानुभूति” के रूप में यथाशीघ्र प्रकाशित होकर प्रत्यक्षगोचर हो सकेगा।
rohit singh –
book printing paper quality is very good..
as per content Gopinath ji all content is superb…
5 star to book