Varna Vyavastha Ka Sankshipt Itihas (वर्णा व्यवस्था का संक्षिप्त इतिहास)
₹30.00
Author | Shri Shitaram Sharma |
Publisher | Chaukhamba Krishnadas Academy |
Language | Sanskrit & Hindi |
Edition | 1658 |
ISBN | - |
Pages | 87 |
Cover | Paper Back |
Size | 12 x 2 x 18 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | CSSO0371 |
Other | Dispatched in 1-3 days |
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वर्णा व्यवस्था का संक्षिप्त इतिहास (Varna Vyavastha Ka Sankshipt Itihas) आजसे लगभग १० वर्षकी बात है। राषि श्रीपुरुषोत्तम दासटण्डनजीद्वारा आयोजित’ भार-तीयसंस्कृतिसम्मेलन’ में उपस्थित सभ्यसमाजके दो दलके पण्डितोंमें ‘संस्कृिति’ शब्दको लेकर वादप्रतिवाद प्रारम्भ हो गया, संस्कृति शब्दके अनेक अर्थ होने लगे। उसमें एक मध्यस्थव्यक्ति ने सुझाव रक्खा कि ‘भारतीयसंस्कृति’ शब्द का क्या तात्पर्य है और इसका यह नाम किस उद्देश्यसे रक्खा गया है। यह श्रीटण्डनजी से ही पूछा जाय। पूछने पर श्रीटण्डनजीने कहा कि-अन्य देशों से कुछ विशेषताएँ ही भारतीयसंस्कृति है, उनमें मुख्य विशेषता वर्णव्यवस्था है, जो पूर्व समय में मनुष्यों के गुणकर्म के आधार पर ही की गई थी। प्रत्येक देश में शिक्षण, रक्षण, उत्पादन और सेवन ये ४ प्रकार कर्म और उनको सिद्ध करने के लिए ४ प्रकार के गुणवाले मनुष्य होते हैं।
वर्ण विभाजन समय में जिनमें ब्रह्म (वेदा-दिप्रतिपादित ज्ञान विज्ञानादि) कर्म सिद्ध करने की योग्यता थी उनको ब्राह्मण, जिनमें रक्षा-कार्य सम्पादन की शक्ति थी उनको क्षत्रिय, जिनमें अन्नवस्त्रादि के उत्पादन और उसका सम्यक् वितरण करनेकी योग्यता थी उनको वैश्य एवं जिनमें केवल सेवन कर्म की क्षमता थी उनको शुद्रवर्ण (अन्वर्थसंज्ञा) भेद से ४ श्रेणी में विभक्त कर उपर्युक्त चारों प्रकार के कार्यों में व्यवस्थित किया गया, तथा उनके द्वारा यहाँ के सब कार्य सुचारु रूपसे सम्पन्न होने लगे। वही ‘वर्ण व्यवस्था’ नाम से व्यवहृत हुई। जबतक गुण के अनुसार ही सब वर्ण अपने अपने साध्य कार्य के सम्पादन में लगे थे तब तक भारत सर्वथा समुन्नत था, उसमें व्यत्यय होने (कुलानुसार वर्ण-मानने) से ही भारत का पतन हुआ । इसलिये पुनः गुण-कर्म से ही वर्णव्यवस्था मानी जाय, यह भी इस सम्मेलन का एक उद्देश्य है।
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