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Vedantsar (वेदान्तसारः)

65.00

Author Dr. Yamuna Ram Tripathi
Publisher Sharda Sanskrit Sansthan
Language Sanskrit & Hindi
Edition 2020
ISBN -
Pages 130
Cover Paper Back
Size 12 x 1 x 17 (l x w x h)
Weight
Item Code SSS0085
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Description

वेदान्तसारः (Vedantsar) वेदान्त दर्शन में वेद के अन्तिम भाग उपनिषदों के आध्यात्मिक सिद्धान्तों का व्याख्यान हुआ है। अस्तु, अपने मूल रूप में उपनिषद् ही वेदान्त हैं। यही दार्शनिक एवं धार्मिक परम्परा कालान्तर में विस्तृत होकर वेदान्त के रूप में परिणत हो गई। यही कारण है कि वेदान्तसार नामक प्रस्तुत ग्रन्थ में ‘वेदान्तो नामोपनिषत् प्रमाणं तदुपकारीणि शारीरकंसूत्रादीनि च’ कहा है, जिसके आधार पर भगवद्गीता आदि शास्त्र भी वेदान्त की कोटि में आ जाते हैं। वेदान्त-सम्मत आध्यात्मवाद की अतिसारगर्भित एवं विशद् व्याख्या आचार्य शंकर ने प्रस्तुत की है। अतः उन्हें ही भारतीय दार्शनिक शिरोमणि होने का गौरव प्राप्त है।

भगवान् शंकराचार्य के अनुसार निखिल ब्रह्माण्ड में ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है। अज्ञान के कारण (माया, अविद्या) असत्य होने पर भी जीव और जगत् की सत्ता प्रतीत होती है। यह प्रतीति रज्जु में सर्प की तरह है, जो प्रकाश (आत्मज्ञान) होते ही नष्ट हो जाती है। ब्रह्म निर्गुण, अनन्त है। वह मायोपहत होकर जीव का उपास्य और जगत् का स्रष्टा बनता है। इसी ब्रह्म का तादात्म्यानुभव करना प्रत्येक जीव का परम लक्ष्य है। वही तादात्म्य आत्मानुभव है। इसी को मुक्ति या मोक्ष कहते हैं। यह स्थिति ज्ञान के द्वारा प्राप्त होती है। जैसा कि श्रुतियों में ‘सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म’ इत्यादि वाक्यों से स्पष्ट होती है। आत्मस्वरूप ज्ञानरूपी आत्मा के अतिरिक्त किसी अन्य साधन से प्राप्त नहीं होता।

भक्ति और कर्म उस ज्ञान के सहायक हैं; क्योंकि उनके द्वारा अन्तःकरण की शुद्धता होने पर ही जीव ब्रह्मज्ञान का अधिकारी बनता है। आत्मानुभव की स्थिति में जीव की पृथक् सत्ता नहीं रहती, प्रत्युत वह ब्रह्म में विलीन हो जाता है। यहाँ व्यावहारिक सत्तावान् जगत् का भी विलय हो जाता है। जीव और जगत् की सत्ता तभी तक है जब तक जीव सांसारिक बन्धन में आबद्ध है। मोक्षावस्था में उन सबका स्वप्रकाश चैतन्यस्वरूप अखण्ड ब्रह्म में पर्यवसान हो जाता है। अद्वैत मत के अनुसार यही वास्तविक आध्यात्मिक जिज्ञासु की अभिलाषा एवं उसकी आध्यात्मिक साधना की परम सिद्धि है।

 

रचयिता सदानन्द का स्थिति काल – वेदान्तसार की सुप्रसिद्ध प्राचीन टीका में, जिसकी रचना १५१० ई. में नृसिंह योगी के द्वारा की गई है, एक श्लोक के अंत में इस प्रकार लिखा है-

“जाते पंचशताधिके दशशते संवत्सराणां पुनः,
संजाते दशवत्सरे प्रभुवरश्रीशालिवाहे शके।
प्राप्ते दुर्मुखवत्सरे शुभशुचौ मासेऽनुगत्यां तिथौ,
प्राप्ते भार्गववासरे नरहरिष्टीकां चकारोज्ज्वलाम्।।”

उसी टीका में नृसिंह योगी ने यह भी लिखा है कि सदानन्द यति उनके गुरु थे- “इतया प्रबन्धेन प्रतिपादितेऽस्मिन् वेदान्तसाराख्ये ग्रन्थे श्रीमत्परमगुरु – परमहंसपरिव्राजकाचार्यसदानन्दयोगीन्द्रेण महापुरुषेण —–।”

इस सुबोधिनी टीका का रचनाकाल यदि १५८८ ई. मान लिया जाय, तो नृसिंह (नरहरि) योगी के गुरु होने के नाते सदानन्द का स्थितिकाल १५८८ ई. से ५० वर्ष पूर्व स्वीकार करना चाहिए। इस प्रकार स्वयं वेदान्तसार के कर्त्ता द्वारा अपने सम्बन्ध में समय-संकेत न देने के कारण इन कतिपय साक्ष्यों के आधार पर उन्हें १६ वीं शती के पूर्वार्द्ध में आविर्भूत हुआ मानना ठीक होगा।

वेदान्त के प्रतिपाद्य विषय सम्पूर्ण वेदान्त दर्शन में निम्नांकित विषयों का प्रतिपादन हुआ है-

१. आत्मतत्त्व | २. ब्रह्मतत्त्व
३. विवर्तवाद | ४. माया और अविद्या
५. ईश्वरतत्त्व | ६. जगत्तत्त्व
७. जीवतत्त्व | ८. ज्ञान और मोक्ष

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