Yagya Valkya Smriti (याज्ञवल्क्यस्मृति)
₹440.00
Author | Dr. Shiv Deepak Sharma |
Publisher | Bharatiya Vidya Sansthan |
Language | Sanskrit & Hindi |
Edition | 1st edition, 2011 |
ISBN | 978-93-81189-15-3 |
Pages | 640 |
Cover | Paper Back |
Size | 14 x 3 x 21 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | BVS0041 |
Other | Dispatched in 1-3 days |
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याज्ञवल्क्यस्मृति (Yagya Valkya Smriti) धर्म ही अपनी शक्ति से इस संसार का सृजन, संहार एवं पालन करता है। व्यास जी के कथन यह है कि ब्रह्मा से स्तम्ब पर्यन्त सभी प्राण धारण करने वाले प्राणियों का सृजन, संहार तथा पालन उनके द्वारा आचरित कर्तव्याकर्तव्य रूप फल के अनुसार होता है। यही कारण है कि जीवात्मा इस संसार-चक्र में भटकता हुआ अनेक विध कष्टों को भोगता रहता है और उससे मुक्ति प्राप्त करने हेतु अनेक जन्मों तक कठोर तप करे के उपरान्त वह सर्वोत्तम मानव योनि को प्राप्त करता है। चौरासी लाख योनियों में मानव योनि को सर्वोत्तम इसलिए माना गया है कि यह विवेक प्रधान योनि है। अन्यान्य योनियों में आत्मा कर्मफल को भोगता है; परन्तु विवेक प्रधान मानव योनि प्राप्त कर अमर आत्मा सद्मार्ग पर चलते हुए कर्म का सञ्चय करता है; परन्तु जिस उद्देश्य से जन्ग जन्मातर तक कठोर तप करने के उपरान्त अमर आत्मा सर्वोत्तम मानव योनि को प्राप्त करता है। उस उद्देश्य को सांसारिक भोग विलास में लिप्त होकर वह विस्मृत कर जाता है। जिसका परिणाम पुनः वही होता है अर्थात् उसे संसार-चक्र के आवागमन रूप दुसह दुःख सहना पड़ता है। प्राणियों के इस दुःख से दुखित होकर उनके कल्याण के लिएऋषियों ने अपनी तपस्या के द्वारा धर्ममार्ग का परिज्ञान कराने के लिए वेद को अभिव्यक्त किया, किन्तु अल्पज्ञ प्राणियों के लिए उससे लाभान्वित होना सम्भव नहीं हुआ। तदनन्तर अपने वंशजों के कल्याण के लिए वेद के भावों को ऋषियों ने स्मृति के रूप में प्रतिपादन किया, जिसे हम धर्मशास्त्र कहते है। वस्तुतः स्मृति श्रुति की अनुगामिनी ही है। कालिदास ने अपने रघुवंश महाकाव्य में कहा है- श्रुतेरिवार्थस्मृतिरन्वगच्छत्। स्मृति को धर्मशास्त्र के रूप में प्रमाणित करने का आधार आद्य स्मृतिकार मनु का वचन हमें प्रामाण रूप से प्राप्त होता है।
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