Shiksha Sangrah (शिक्षासङ्ग्रह:)
₹421.00
Author | Prof. Hari Narayan Tiwari |
Publisher | Chaukhamba Sanskrit Series Office |
Language | Sanskrit & Hindi |
Edition | 2020 |
ISBN | 978-81-7080-530-4 |
Pages | 636 |
Cover | Hard Cover |
Size | 14 x 4 x 21 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | CSSO0072 |
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शिक्षासङ्ग्रह: (Shiksha Sangrah) वह शास्त्र, जिसमें वर्ण और स्वर इत्यादि का उच्चारण का ढंग का उपदेश किया गया है, शिक्षा कहलाता है। जैसा कि तैत्तिरीय-उपनिषद् के आरम्भ में कहते है -‘शिक्षां व्याख्यास्यामः । वर्णः। स्वरः। मात्रा । बलम् । सामसन्तानः’ (तै.उप.१.१) ।
हम शिक्षा का व्याख्यान करेंगे। वर्ण, स्वर, मात्रा, बल, साम और सन्तान शिक्षा के विषय है, इस तरह शिक्षाध्याय कहा गया है। अकार आदि वर्ण है। उसका अङ्ङ्गभूत शिक्षाग्रन्थ में स्पष्ट वर्णन हुआ है -‘त्रिषष्टिश्चतुःषष्टिर्वा वर्णाः शम्भुमते मताः शम्भु महादेव के मत में तिरठ अथवा चौसठ वर्ण है। प्राकृत और संस्कृत में भी वही कहा गया है -‘उदात्त, अनुदात्त और स्वरित, ये तीन स्वर है। ह्रस्व इत्यादि मात्रा है। मात्रा के विषय में भी वही कहा गया है -‘हस्व, दीर्घ और प्लुत, ये मात्रायें काल- समय के नियमानुसार अच् स्वर में प्रयुक्त होती है। स्थान और प्रयत्न को बल कहा गया है। वहाँ –
‘अष्टौ स्थानानि वर्णानामुरः कण्ठः शिरस्तथा ।
जिह्वामूलं च दन्ताश्च नासिकोष्ठी च तालु च’ ।। (पा.शि.१३)
‘वर्णो के आठ उच्चारणस्थान हैं’ इत्यादि बतलाया गया है। ‘अच् स्पृष्ट है, यण ईषत्-स्पृष्ट है’ इत्यादि के द्वारा प्रयत्न बताया गया है। साम-शब्द का अर्थ है -‘साम्य-युक्त’ । अतिद्रुत, अतिविलम्बित, गीति इत्यादि दोषों से रहित और माधुर्य इत्यादि गुणों से युक्त उच्चारण को साम्य कहा गया है। ‘गीति’ और ‘उपांशु’ के द्वारा दोषों का कथन किया गया है। ‘माधुर्य इत्यादि के द्वारा गुणों का कथन किया गया है।
सन्तान का अर्थ है – ‘संहिता, अर्थात् पदों का अतिशयसन्निधि। ‘वायो आयाहि’ इन दो स्वतन्त्र वैदिक पदों का एक ही वाक्य में साथ-साथ उच्चारण करने पर सन्धि के कारण ‘वायवायाहि’ रूप होगा। यहाँ पर ‘ओ’ के स्थान पर ‘अबू’ आदेश हुआ है। ‘इन्द्राग्नी आगतम्’ में प्रकृतिभाव हुआ है। व्याकरण में इस विषय का विशेष कथन होने से शिक्षा में इस विषय की अपेक्षा नहीं की गयी है। शिक्षा के नियमों के अनुसार वर्षों का शुद्ध उच्चारण न किये जाने पर जो दोष होता है, उसे बताने के लिए उसी शिक्षाग्रन्थ में यह उदाहरण दिया गया है –
‘मन्त्रो हीनः स्वरतो वर्णतो वा मिथ्याप्रयुक्तो न तमर्थमाह ।
स वाग्वजो यजमानं हिनस्ति, यथेन्द्रशत्रुः स्वरतो ऽपराधात्’ ।।
जो मन्त्र स्वर अथवा वर्ण से हीन होता है, यह मिथ्याप्रयुक्त होने के कारण अभीष्ट अर्थ का कथन नहीं करता है। वह तो वाग्वज बन कर यजमान का नाश कर देता है, जिस तरह स्वर के अपराध से ‘इन्द्रशत्रु’ शब्द यजमान का ही विनाशक बन गया। ‘इन्द्रशत्रुर्वद्धस्व’ इस मन्त्र में विवक्षित अर्थ था कि इन्द्र का शत्रु-शातयिता घातक बढे। इस तरह इस शब्द से ‘इन्द्रस्य शत्रुः’ यह पष्ठी-तत्पुरुषसमास होना चाहिये था और तत्पुरुष होने पर इस शब्द को ‘समासस्य’ (पा.सू.६.१.२२३) सूत्र से अन्तोदात्त होना चाहिये था। परन्तु ऋत्विजों की असावधानी से अन्तोदात्त के स्थान पर आद्युदात्त का उच्चारण हो गया। ऐसा होने पर ‘बहुव्रीहौ प्रकृत्या पूर्वपदम्’ (पा.सू.६.३.१) के द्वारा पूर्वपद को बहुव्रीहि में प्रकृतिस्वर कर देने से यह बहुव्रीहि बन गया, जिसके कारण अर्थ हो गया ‘इन्द्र है शत्रु-शातयिता जिसका अर्थात् जिसको इन्द्र मारे, वह इस यज्ञ से प्रकट हो’। यहाँ शत्रुपद क्रियापरक है -‘शत्रुः शातयिता’ ऐसा। इस तरह स्वरदोष से वृत्रासुर मारा गया। अतः स्वर, वर्ण आदि का अपराधों का परिहार के लिए शिक्षाग्रन्थ अपेक्षित है।
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