Upanayan Paddhati (उपनयन पद्धतिः)
₹45.00
Author | Acharya Devnarayan Sharma |
Publisher | Shri Kashi Vishwanath Sansthan |
Language | Hindi & Sanskrit |
Edition | 2023 |
ISBN | 978-93-92989-21-6 |
Pages | 72 |
Cover | Paper Back |
Size | 18 x 2 x 12 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | TBVP0261 |
Other | Dispatched In 1 - 3 Days |
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उपनयन पद्धतिः (Upanayan Paddhati) ‘उपनयन’ का अर्थ ही होता है-उप समीपे (गुरोः) नयनम् प्रापणम् (अध्ययनार्थम् दीक्षार्थं वा) अर्थात् आचार्य के समीप दीक्षा या अध्ययन के निमित्त बालक को अभिभावक द्वारा पहुँचाना ही इस संस्कार का उद्देश्य था। इसीलिए इसके कर्मकाण्ड में कौपीन, मौञ्जी, मृगचर्म और दण्ड धारण करने का विधान है। बालक वटु के वेष में सम्पूर्ण व्रतों नियमों का पालन करते हुए संयम और ब्रह्मचर्य का जीवन व्यतीत करता था, इसीलिए इसे ‘व्रतबन्ध’ भी कहा जाता है यज्ञोपवीत के द्वारा ही ब्रह्मचारी की पहचान और उसको धारण करने वाले को सदा अपने दीक्षा संकल्प का स्मरण रहे, यही यज्ञोपवीत धारण का मूल उद्देश्य है। शिखा और सूत्र के बिना किये गये सारे कर्म निष्फल होते हैं। अतः द्विजमात्र को शिखा और सूत्र अवश्य कारण करना चाहिए-
“सदोपवीतिनाभाव्यं सदाबद्धशिखेन च।
विशिखो व्युपवीतश्च यत्करोति न तत्कृतम् ।। – कात्यायन
ब्रह्मचारी वेष में वह भिक्षाटन करता है। पहली भिक्षा अपनी माता से, फिर पिता तथा अन्य लोगों से माँगता है। यह समाज के सभी वर्ग से भिक्षाटन करके अपने अहंकार का नाश, व्यष्टि से समष्टि को जोड़ने का अभ्यास माना जाता था। आज इसका मूल उद्देश्य कहीं न कहीं लुप्त सा जान पड़ता है। समस्त द्विजातियों का इस संस्कार पर अधिकार है। ब्राह्मण आठ वर्ष की अवस्था में, क्षत्रिय ग्यारह वर्ष तथा वैश्य १२ वर्ष की अवस्था में उपनीत होते हैं- ‘गर्भाष्टमेऽब्दे ब्राह्मणमुपनयेत्। एकादशे क्षत्रियम्। द्वादशे वैश्यम्’- आ. २९०। द्विजातियों का यह एक अत्यन्त पवित्र एवं महत्त्वपूर्ण संस्कार है। इस संस्कार के बाद ही बाद ब्रह्मचारी वेद, शास्त्राध्ययन का अधिकार प्राप्त करता है। प्रणव सहित गायत्री जप का अधिकार प्राप्त कर वह शील, शौर्य, बल, मेधा, धृति, स्मृतियुक्त असाधारण व्यक्तिव का स्वामी बनता है।
वास्तव में यही वह संस्कार है जिसके उपरान्त बालक ‘द्विज’ कहलाने का अधिकारी बनता है-द्वाभ्याम् = मातृगर्भात् संस्काराच्च जायते यः सः द्विजः अर्थात् ‘द्विज’ वह है जो दो बार जन्म ग्रहण करता है। पहले माँ के गर्भ से, दूसरा उपनयनादि संस्कारों के द्वारा। उपनयन के पश्चात् ‘वेदारम्भ संस्कार’ किया जाता है। आचार्यमुख से वटुक चारों वेदों का मंत्रपाठ करता है। वेदाध्ययन के पश्चात् गुरुकुल से गृहस्थ धर्म के पालन के लिए आगमन हेतुक संस्कार को समावर्त्तन संस्कार कहा जाता है ऐसा गोभिल का मत है- समावर्तते गुरु कुलादनेन इति सम्+आ+वृत करणे ल्युट् समावर्तनम्। वर्तमान समय में उपनयन, वेदारम्भ, समावर्तन तीनों संस्कारों को एक साथ करने की गलत परम्परा चल पड़ी है। यही कारण है कि उपनयन पद्धतियों में तीनों संस्कारों का एक साथ उल्लेख प्राप्त होता है। प्रस्तुत पुस्तक में भी तीनों संस्कारों का एक साथ समावेश किया गया है। इस ग्रंथ से यदि सुधीजनों को थोड़ी भी सहायता मिलती है तो मुझे अत्यन्त संतुष्टि प्राप्त होगी एवं मेरा प्रयास सार्थक होगा।
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