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Tantra Raj Tantram Set of 2 Vols. (तंत्रराजतन्त्रम् 2 भागो में)

1,190.00

Author Shree Kapil Dev Narayan
Publisher Chaukhamba Surbharti Prakashan
Language Hindi Text With Sanskrit Translation
Edition 2022
ISBN 978-93-80-326-98-6
Pages 799
Cover Hard Cover
Size 14 x4 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code CSSO0450
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Description

तंत्रराजतन्त्रम् 2 भागो में (Tantra Raj Tantram Set of 2 Vols.) तन्त्रराजतन्त्र का अर्थ होता है तन्त्रों में सर्वश्रेष्ठ तन्त्र। यह कई भागों में है। श्रीललिता महात्रिपुरसुन्दरी की उपासना के तीन प्रमुख मत है-‘कादि’ ‘हादि’ और ‘कहादि’। शक्तिसंगमतन्त्र के चार भाग है- पहला भाग कादिमत का है। इसी को ‘तन्त्रराज’ कहा गया है। इसमें ३६ अध्याय है जो ‘शिवादि क्षिति प्राप्त तत्त्वावलि’ के आधार पर है। एक-एक अध्याय एक-एक तत्त्व से सम्बन्धित है प्रत्येक अध्याय में १०० श्लोक है।

उपर्युक्त तीन मतों ‘कादि’, ‘हादि’ एवं ‘कहादि’ का स्पष्टीकरण निम्न प्रकार का है-‘कादि’ में मन्त्र ‘क’ अक्षर से प्रारम्भ होता है। ‘हादि’ में ‘ह’ अक्षर से प्रारम्भ होता है और कहादि में ‘कह’ से प्रारम्भ होता है। श्रीविद्या पन्द्रह अक्षरों का मन्त्र है। उसी की आराधना तीन मतों के अनुसार की जाती है। कादि मत के कई ग्रन्थ हैं पर उनमें प्रमुख नव है। यथा-

१. चन्द्रज्ञान, २. मातृका, ३. सम्मोहन, ४. वामकेश्वर, ५. बहुरूपाष्टक, ६. प्रस्तारचिन्तामणि, ७. मेरुप्रस्तार, ८. सुन्दरीहृदय तथा ९. नित्याषोडशिकार्णव इनके विषय में विद्वानों में कुछ मतभेद इस प्रकार है- भास्करराय के अनुसार ‘नित्याषोडशिकार्णव’ ‘वामकेश्वर’ और ‘सुन्दरी’ या ‘योगिनीहृदय’ तीनों मिलाकर एक ही तन्त्र के तीन खण्ड है। बहुरूपाष्टक में ब्राह्मी आदि सप्तमातृकाओं के सात खण्ड है। सम्मोहनतन्त्र वैष्णवतन्त्र है। यह विद्वानों का मत वैभिन्न्य है। किन्तु सभी ग्रन्थ शक्ति की आराधना से सम्बन्धित है।

कादितन्त्र में विस्तृत विवरण के साथ पूजन-विधान में शक्ति के विविध रूपों की पूजा का विधान रहता है। तीन प्रकार का पूजन विधान होता है-१. स्थूल, २. सूक्ष्म और ३. परा पूजा। अधिकतर साधक स्थूल पूजा ही करते हैं। इसमें मूर्ति या यन्त्र-पूजन होता है। इस पूजन से सवर्वोच्च सिद्धि-मोक्ष की प्राप्ति होती है। पूजन का मुख्य उद्देश्य और लक्ष्य अद्वैत वेदान्त के लक्ष्य की प्राप्ति ही है।

श्रीललिता महात्रिपुरसुन्दरी की पूजा में तीनों प्रकार का व्यवहार है। स्थूल में रूप, सूक्ष्म में यन्त्र एवं मन्त्र और परा पूजा में भावना प्रधान पूजा होती है। इस पूजा को कायिक, वाचिक और मानसिक कह सकते है अथवा बहिर्याग, अन्तर्याग और भावना कह सकते है। तन्त्रराजतन्त्र के अनुसार गुरु के द्वारा क्रम से बाह्यपूजा, अन्तर्याग और अन्तर्भावना द्वारा परम लक्ष्य तक पहुँचा जा सकता है। गुरु और विमर्शमयी सबका कारण आद्या शक्ति है, उसमें कोई भेद नहीं माना जाता है। शरीर के नवद्वारों में गुरु का स्थान है। साधक का शरीर श्रीयन्त्राकार माना जाता है।

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