Brihadaranyak Vartikasar Set of 4 Vols. (बृहदारण्यकवार्तिकसारः 4 भागों में)
₹858.00
Author | Prof. Vachaspati Dwivedi |
Publisher | Sampurnananad Sanskrit Vishwavidyalay |
Language | Sanskrit & Hindi |
Edition | 1st edition |
ISBN | - |
Pages | 2450 |
Cover | Hard Cover |
Size | 14 x 1 x 22 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | SSV0005 |
Other | Dispatched in 1-3 days |
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बृहदारण्यकवार्तिकसारः 4 भागों में (Brihadaranyak Vartikasar Set of 4 Vols.) भारतीय चिन्तन परम्परा में वेदान्त के अपर पर्याय उपनिषद् सम्पूर्ण वैदिक वाङ्मय के मन्थन से उद्भूत सारतत्त्व के रूप में प्रतिष्ठित हैं। सदानन्द ने वेदान्त की परिभाषा देते हुए लिखा है कि “वेदान्तो नाम उपनिषत्प्रमाणम्” अर्थात् उपनिषदों को प्रमाण मानकर चलने वाला शास्त्र वेदान्त है। ब्राह्मण ग्रन्थों से लेकर उपनिषद् ग्रन्थों तक सम्पूर्ण वैदिक साहित्य मन्त्र-संहिताओं का ही व्याख्या रूप है। “मन्त्रब्राह्मणात्मको वेदः”। जहाँ उपनिषद् ग्रन्थों का सीधा सम्वन्ध मन्त्र-संहिताओं से है, वहीं ब्राह्मण साहित्य वेद के कर्मकाण्ड पक्ष को उद्घाटित करते हैं। कर्म एवं ज्ञान दोनों ही वेद की अनिवार्य धुरी हैं। कर्म-भावना को लेकर जहाँ ब्राह्मण-ग्रन्थों की रचना हुई, वहीं ज्ञान-भावना के आधार पर उपनिषद् रचे गये।
उपनिषद् सत्य के उस स्वरूप का निरूपण करने में समर्थ हैं, जो मनुष्य की वैज्ञानिक, दार्शनिक तथा धार्मिक आकांक्षाओं की परिपूर्ति कर सकता है। उपनिषद् हमारे सामने सत्य का वह सिद्धान्त रखती है, जो रहस्यात्मक एवं स्वानुभूतिजन्य है। औपनिषदिक तत्त्व सिद्धान्तों की तुलना आधुनिक एवं पाश्चात्त्य विचारधारा की प्रवृत्तियों के साथ भी की जा सकती है। उपनिषदों में हमें शुद्धाद्वैत, विशिष्टाद्वैत, बहुपुरुषवाद, अहमेववाद, रहस्यवाद आदि अनेक सिद्धान्त मिलते हैं, जिनसे वर्तमान दार्शनिक जगत् प्रभावित है। इस प्रकार उपनिषदों ने सम्पूर्ण विश्व के धर्म एवं दर्शन को एक सुनिश्चित आधार प्रदान करने के साथ-साथ सत्यान्वेषण एवं आत्मानुभूति की नयी दिशा दी है। यही कारण है कि औपनिषदिक सिद्धान्तों को अपनाने में विभिन्न सम्प्रदायों को भी कोई आपत्ति नहीं है।
बृहदारण्यकभाष्यवार्तिक भी अतिविस्तृत है। इस घोर कलिकाल में अल्पायु जीवों के लिए इतने विस्तृत ग्रन्थ सागर के आलोडन द्वारा ज्ञानरत्न के अन्वेषण में कठिनाई का अनुभव कर महामहिमशाली श्री विद्यारण्यमुनि ने श्री सुरेश्वराचार्य की सूक्तियों में यत्र तत्र बिखरे हुए रत्नों का एकत्र संग्रह करने की इच्छा से ‘बृहदारण्यकवार्तिकसार’ का निर्माण किया। यद्यपि वार्तिक की अपेक्षा यह ग्रन्थ अति लघु है, तथापि ग्रन्थकार ने वार्तिक में प्रतिपादित सम्पूर्ण विषयों का इसमें असाधारण कौशल से समावेश किया है। श्री विद्यारण्य स्वामी ने प्रारम्भ में ही स्पष्ट कर दिया है कि बृहदारण्यक- भाष्यवार्त्तिककार श्रीमत् सुरेश्वराचार्य के चरणकमलानुरागी शम-दम आदि साधनसम्पन्न सज्जन इक्षुरसोपम वार्त्तिक के अर्थ का आस्वाद कर आत्मानुभव रूप मोक्ष से तृप्त हों।
तात्पर्य है कि यद्यपि वार्त्तिककार ने तत्त्वज्ञान-पिपासुओं के लिए वार्त्तिक ग्रन्थ का निर्माण किया है, किन्तु उसके इक्षुदण्ड के समान कठिन होने से साधारण बुद्धि वाले जिज्ञासु जनों को वार्त्तिक का रसास्वाद नहीं हो सकता। अतः समयानुसार सरल व्याख्या कर आत्मतत्त्व के जिज्ञासुओं के लिए वेद्य बना दिया है।
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