Adhyatma Pad Parijat (अध्यात्म पद पारिजात)
₹100.00
Author | Dr. Kanchhedi Lal Jain |
Publisher | Shri Janesh Varni Digamber Jain Sansthan |
Language | Hindi |
Edition | 1st edition, 1996 |
ISBN | - |
Pages | 229 |
Cover | Hard Cover |
Size | 14 x 2 x 22 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | PV00086 |
Other | Dispatched in 3 days |
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अध्यात्म पद पारिजात (Adhyatma Pad Parijat) “अध्यात्मपद-पारिजात” एक संग्रह-ग्रन्थ है, जिसमें १६ वीं सदी से लेकर २० वीं सदी तक के प्रमुख हिन्दी जैन भक्त कवियों की रचनाएँ संकलित हैं। इनमें कवियों ने भक्ति के उन्मेष में जिस पद-साहित्य की रचना की, वह जन-मानस को आध्यात्मिक जीवन की ओर अग्रसर होने की प्रभावक प्ररेणा देनेवाली प्रणम्य प्रकाश-किरणें समाहित हैं। जिस अहिंसा-दर्शन और अनेकान्त-दृष्टि का इन पदों में सरल भाषा-शैली में हृदयग्राह्य वर्णन किया गया है, वह सार्वजनीन, सार्वभौमिक, शाश्वत और सनातन सत्य है।
हमारे महान् सन्त साधकों के उदात्त-चिन्तन, अध्यात्म-साधना और आत्मशोधन की प्रवृत्ति द्वारा निस्यूत जिस आत्मानन्दरूपी अमृतसिन्धु को भक्त कवियों ने अनुभव किया, उसी की शब्दमय अभिव्यक्ति हैं ये पद। इनमें आध्यात्म और संगीत का अनूठा समन्वय है और है दर्शन के गूढ से गूढतर विषयों को भी सरल शब्दों में समझाने की अद्भुत शक्ति। इनमें मानवता को अनुप्राणित करने वाली भावनाओं की प्रचुरता है एवं हृदय को आन्दोलित कर देने वाली नव रसमय पिच्छिल रसधारा सतत सर्वत्र प्रवाहित है।
सभी पद गीतिकाव्य की पद्धति पर आधारित है। गीतिकाव्य मुक्तक-श्रेणी का काव्य होता है, जिसमें गीतिकार की अपनी आवेशपूर्ण भावनाओं का प्रकाशन होता है। गीतिकार अपनी ही मानसिक अनुभूतियों की गीतिरूप में अभिव्यञ्जना करता है। वह अभिव्यञ्जना भाव के अनुकूल ही उस कोमल कान्त, स्वाभाविक और सरल भाषाशैली में होती है, जिसमें हृदयगत भावना का सौन्दर्य और माधुर्य व्याप्त रहता है। भावावेश में ही गीतों का जन्म होता है। उनका आकार निश्चित नहीं होता। वह भावानुसार ही छोटा या बड़ा हो सकता है। इस गीति-विधान का स्वरूप विभिन्न समयानुकूल राग-रागनियों पर आधारित रहता है। गीत में संगीत की प्रधानता रहती हैं। यद्यपि संगीत के लिए काव्यत्व अपेक्षित नहीं, क्योंकि उसका प्रधान आधार स्वर-लहरी है, किन्तु जब गीत में काव्यत्व होता है तभी वह गीतिकाव्य का नाम ग्रहण कर लेता है।
गीति-काव्य में कवि अपने ही अन्तस् के सूक्ष्म भावजगत का वर्णन करता है। उसकी वृत्ति प्रधानतया अन्तर्मुखी होती है। अपनी अनुभूति का या भाव के आवेश का ही संगीतमय वर्णन उसका लक्ष्य होता है। प्रस्तुत संग्रह-ग्रन्थ के प्रायः सभी कवि संगीत के पारखी कवि हैं। इनके पद विभिन्न शास्त्रीय राग-रागनियों पर आधारित हैं, जिनमें गौरी, सारंग, विलावल, यमन, रामकली, काफी, धनाश्री, खम्माज, केदार, आसावरी, पीलू, सोरठ, मलार आदि प्रमुख हैं। इन पदों का संगीत, भावसंगीत की प्रतिध्वनि सा प्रतीत होता है। इस संगीत-प्रधान काव्य-पद्धति में कवि शब्दचयन, शब्द-माधुर्य और कला-विधान के सौन्दर्य के साथ अपनी भावनाओं का प्रकाशन करता है। किन्तु जब इन गीतों में आराध्यदेव सम्बन्धी अनुभूतियों का वर्णन होने लगता है, तो उनकी संज्ञा महत् हो जाती है।
प्रस्तुत संकलन के पदसाहित्य को बीस विषयों में विभक्त किया गया है- १. जिनस्तुति, २. जिनदेव-दर्शन-पूजन, ३. जिनवाणी, ४. गुरुस्तुति, ५. सम्यग्दर्शन, ६. सम्यग्ज्ञान, ७. सदुपदेश, ८. विनय, ९. आत्मस्वरूप, १०. बारह भावना, ११. कर्मफल, १२. बधाईगीत, १३. उत्तम नरभव, १४. होली, १५. भोग-विलास, १६. संसार-असार, १७ सप्तव्यसन, १८. मन, १९. कषाय एवं २०. भाव-परिणाम।
उक्त पदों में अध्यात्म, भक्ति, नीति, आचार, स्वकर्तव्य-निरूपण, आत्मसम्बोधन और वैराग्य की शिक्षा के साथ-साथ मन, इन्द्रिय और शरीर की स्वाभाविक प्रवृत्ति का दिग्दर्शन कराकर मानव को सावधान कर आत्मालोचन की प्रवृत्ति जगाने का प्रयास किया गया है। इनकी विशेषता है। संगीतात्मकता, आत्मनिष्ठा, अनुभूति की तीव्रता और रागात्मक अनुभूति की अभिव्यञ्जना ।
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