Brihat Samhita Set of 2 Vols. (बृहत्संहिता 2 भागो मे)
₹640.00
Author | Prof. Sadanand Shukla |
Publisher | Bharatiya Vidya Sansthan |
Language | Sanskrit & Hindi |
Edition | 1st edition, 2011 |
ISBN | 81-87415-99-1 |
Pages | 1440 |
Cover | Paper Back |
Size | 14 x 7 x 21 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | BVS0080 |
Other | Dispatched in 1-3 days |
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बृहत्संहिता 2 भागो मे (Brihat Samhita Set of 2 Vols.)
वेदा हि यज्ञार्यमभित्रवृत्ताः कालादिपूर्वा विहिताच यज्ञाः।
तस्मादिदं कालविधानशास्त्रं यो ज्योतिषं वेद स वेद यज्ञम् ।।
ज्योतिष शास्त्र का ज्ञान प्राचीन काल से ही मनुष्यों के लिये अतीव उपयोगी सिद्ध होता आया है। सृष्टि के आरम्भ में ही वेद यज्ञ के लिए प्रवृत्त हुये। यज्ञ का सम्पादन काल-समय-मुहूर्त आदि का निर्णय करने वाले ज्योतिष शात्र को जो जानता है, वही यश का ज्ञाता होता है। लोक में किसानों को यदा ही इस बात की चिन्ता बनी रहती है कि वर्षा कब होगी। पूजा के अधिकारियों को शुभ मुहूर्त की चिन्ता बनी रहती है कि कब शुभ मुहूर्त आवे तो दीर्घ सत्र का आरम्भ किया जाय। प्राचीन काल में साल-साल भर तक यज्ञ चला करते थे। इसलिए यह जानना अति आवश्यक था कि वर्ष में कितने दिन होते है? वर्ष कब आरम्भ होता है? और कब समाप्त होता है? स्पष्ट है कि इस चराचर जगत् की सभ्य तथा असभ्य दोनों ही जातियों के लिये इस ज्योतिष शास्त्र का सामान्य ज्ञान होना आवश्यक है।
ज्योतिष वेद के छः अङ्गों में से एक है और इसे वेदपुरुष का नेत्र स्वीकार किया गया है। एवमेव शिक्षाशास्त्र को वेद की नासिका, छन्दः शाख को चरण एवं व्याकरण को मुख कहा गया है। ज्योतिष के चक्षुरूप होने से यह वेदपुरुष का सर्वोत्तम अङ्ग माना गया है। सच तो यह है कि सभी अङ्गों से युक्त होने पर भी ज्योति के अभाव में शरीर ही व्यर्थ समझा जाता है। इस सम्बन्ध में आचार्य भास्कर ने कहा भी है-
वेद चक्षुः किलेदं ज्योतिषं मुख्यता चाङ्गमध्येऽस्य तेनोच्यते।
संयुतोऽपीतरैः कर्णनासादिभिः चक्षुषाङ्गेन हीनो न किचित्करः ।।
असीमित गगन मण्डल में असंख्य तेजोमय विम्ब दिग्गोचर होते हैं। वे सभी समष्टि रूप से ज्योतिष शब्द से पुकारे जाते हैं। उनमें भी जो सदैव एक रूप रहते हैं, उनको नक्षत्र के नाम से पुकारा जाता है तथा जो प्रतिदिन गति से सञ्चरण करते हैं, उनको ग्रह कहा जाता है। कुछ किरणें विषमय है, कुछ अमृतमय है एवं कुछ विषअमृतमिश्रित किरणें हैं। इस प्रकार के नक्षत्र-ग्रह-तारा आदि ज्योतिःपुञ्जओं की स्थिति, गति, प्रभाव आदि का वर्णन करने वाला शास्त्र ही ज्यौतिष शास्त्र है।
‘ज्योतिषि अस्य सन्ति’ इस प्रकार के विग्रह में ज्योतिः शब्द से मत्वर्थीय अच् प्रत्यय करने पर ‘अधिकृत्यकृते ग्रन्थे’ से ‘तदधिकृत्य कृतो ग्रन्यो ज्योतिषः’ (सूर्यसिद्धान्त) आदि अर्थ का बोध होता है। ‘तदधीते तद्वेद वा’ ऐसे विग्रह में ऋतूक्यादि गण में पठित होने से ठक् प्रत्यय होकर ज्योतिषिक एवं पक्ष में अण प्रत्यय होने से ज्योतिषशब्द की निषपत्ति होती है। इसी प्रकार ‘ज्योतिषम् अस्य अस्ति’ इस विग्रह से ज्योतिषी एवं ज्यौतिषी शब्द की भी निषपत्ति होती है। कुछ लोग तो ‘ज्योतिषि अधिकृत्य कृतो ग्रन्यः’ ऐसी व्युत्पत्ति करके ज्योतिष पद से ज्योतिष शास्त्र का भी ग्रहण करते हैं; किन्तु यह पक्ष सर्वमान्य नहीं हो सकता; क्योंकि शास्त्र और ग्रन्थ में स्पष्टतः भेद होता है। केवल कथित विषय का शासनमात्र करना शास्त्र का कार्य है। ग्रन्थ तो वह है, जिसमें आचार्यविशेष द्वारा विरचित निश्चित शब्दों का आनुपूर्वी विन्यास होता है; जैसे कि महामुनि पाणिनि सूत्रकार हैं, न कि व्याकरणकार; क्योंकि सूत्र अन्वस्वरूप है एवं व्याकरण शास्त्ररूप में स्वीकृत है। कुछ विद्वान् ज्योतिर्विद्यारूप अर्थ में ‘ज्योतिषम्’ इस शब्द को रूढ़ भी मानते हैं, क्योंकि रूढ ज्योतिष् शब्द से स्वार्ये अण प्रत्यय होकर ज्योतिषम् बनता है; लेकिन यह व्युत्पत्ति भी केवल प्रलापमात्र ही है।
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