Yog Darshan (योग दर्शन) Code 135
₹25.00
Author | Hari Krishna Das Goyandaka |
Publisher | Gita Press, Gorakhpur |
Language | Sanskrit & Hindi |
Edition | 55th edition |
ISBN | - |
Pages | 144 |
Cover | Paper Back |
Size | 14 x 1 x 21 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | GP0021 |
Other | BVS0174 |
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योग दर्शन (Yog Darshan) योगदर्शन एक बड़ा ही महत्त्वपूर्ण और साधकों के लिये परम उपयोगी शास्त्र है। इसमें अन्य दर्शनों की भाँति खण्डन-मण्डन के लिये युक्तिवाद का अवलम्बन न करके सरलतापूर्वक बहुत ही कम शब्दों में अपने सिद्धान्त का निरूपण किया गया है। इस ग्रन्थ पर अब तक संस्कृत, हिंदी और अन्यान्य भाषाओं में बहुत भाष्य और टीकाएँ लिखी जा चुकी हैं। भोजवृत्ति और व्यासभाष्य के अनुवाद भी हिंदी-भाषा में कई स्थानों से प्रकाशित हो चुके हैं। इसके सिवा ‘पातञ्जलयोग- प्रदीप’ नामक ग्रन्थ स्वामी ओमानन्दजीका लिखा हुआ भी प्रकाशित हो चुका है, इसमें व्यासभाष्य और भोजवृत्ति के सिवा दूसरे दूसरे योग विषयक शास्त्रों के भी बहुत-से प्रमाण संग्रह करके एवं उपनिषद् और श्रीमद्भगवद्गीतादि सद्यन्थों के तथा दूसरे दर्शनों के साथ भी समन्वय करके ग्रन्थ को बहुत ही उपयोगी बनाया गया है। परंतु ग्रन्थ का विस्तार अधिक है और मूल्य अधिक होने के कारण सर्वसाधारण को सुलभ भी नहीं है। इन सब कारणों को विचारकर पूज्य पाद भाई जी तथा श्रीजयदयाल जी की आज्ञा से मैंने इस पर यह ‘साधारण हिंदी-भाषाटीका’ लिखनी आरम्भ की थी। टीका थोड़े ही दिनों में लिखी जा चुकी थी, परंतु उसी समय ‘कल्याण’ के ‘उपनिषदङ्क’ का निकालना निश्चित हो गया; अतः ईशावास्योपनिषद्से लेकर श्वेताश्वतरोपनिषद्तक नौ उपनिषदों की टीका लिखने का भार मुझ पर आ पड़ा। इस कारण योग दर्शन की टीका का संशोधन कार्य नहीं हो सका एवं प्रेस में छापने के लिये अवकाश नहीं रहा। इसके सिवा और भी व्यापार-सम्बन्धी काम हो गये, अतः प्रकाशन कार्य में विलम्ब हुआ। इस समय सरकार का कागजों पर से कन्ट्रोल उठ जाने से एवं प्रेस में भी छपाई के लिये कुछ अवकाश मिल जाने से यह टीका प्रकाशित की जा रही है।
इस ग्रन्थ के पहले पाद में योग के लक्षण, स्वरूप और उसकी प्राप्तिके उपायों का वर्णन करते हुए चित्त की वृत्तियोंके पाँच भेद और उनके लक्षण बतलाये गये हैं। वहाँ सूत्रकारने निद्राको भी चित्तकी वृत्तिविशेषके अन्तर्गत माना है (योग० १।१०), अन्य दर्शनकारों की भाँति इनकी मान्यतामें निद्रा वृत्तियोंका अभावरूप अवस्थाविशेष नहीं है। तथा विपर्ययवृत्तिका लक्षण करते समय उसे मिथ्याज्ञान बताया है। अतः साधारण तौरपर यही समझमें आता है कि दूसरे पादमें ‘अविद्या’ के नाम से जिस प्रधान क्लेश का वर्णन किया गया है (योग० २।५), वह और चित्त की विपर्ययवृत्ति- दोनों एक ही हैं; परंतु गम्भीरतापूर्वक विचार करने पर यह बात ठीक नहीं मालूम होती। ऐसा मानने से जो-जो आपत्तियाँ आती हैं, उनका दिग्दर्शन सूत्रों की टीकामें कराया गया है (देखिये योग० १।८; २।३, ५ की टीका)। द्रष्टा और दर्शन की एकतारूप अस्मिता-क्लेशके कारण का नाम ‘अविद्या’ है (योग० २।२४), वह अस्मिता चित्तकी कारण मानी गयी है (योग० १।४७; ४।४) । इस परिस्थिति में अस्मिता के कार्यरूप चित्त की वृत्ति अविद्या कैसे हो सकती है जो कि- अस्मिताकी भी कारणरूपा है, यह विचारणीय विषय है।
इस पाद के सत्रहवें और अठारहवें सूत्रों में समाधि के लक्षणों का वर्णन बहुत ही संक्षेप में किया गया है। उसके बाद इकतालीसवें से लेकर इस पादकी समाप्तितक इसी विषय का कुछ विस्तार से पुनः वर्णन किया गया है, परन्तु विषय इतना गम्भीर है कि समाधि की वैसी स्थिति प्राप्त कर लेने के पहले उसका ठीक-ठीक भाव समझ लेना बहुत ही कठिन है। मैंने अपनी साधारण बुद्धि के अनुसार उन सूत्रों की टीका में विषय को समझाने की चेष्टा की है, किंतु यह नहीं कहा जा सकता कि इतने से ही पाठकों को संतोष हो जायगा; क्योंकि सूत्रकारने आनन्दानुगत और अस्मितानुगत समाधि का स्वरूप यहाँ स्पष्ट शब्दों में नहीं बताया। इसी प्रकार ग्रहण और ग्रहीताविषयक समाधि का विवेचन भी स्पष्ट शब्दों में नहीं किया; अतः विषय बहुत ही जटिल हो गया है।
यही कारण है कि बड़े-बड़े टीकाकारों का सम्प्रज्ञातसमाधि के स्वरूप-सम्बन्धी विवेचन करने में मतभेद हो गया है, किसी के भी निर्णय से पूरा संतोष नहीं होता। मैंने यथासाध्य पूर्वा पर के सम्बन्ध की संगति बैठाकर विषय को सरल बनाने की चेष्टा तो की है, तथापि पूरी बात तो किसी अनुभवी महापुरुष के कथनानुसार श्रद्धापूर्वक अभ्यास करने से वैसी स्थिति प्राप्त होने पर ही समझ में आ सकती है और तभी पूरा संतोष हो सकता है, यह मेरी धारणा है।
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