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Jain Yog Ka Aalochanatamak Adhyayan (जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन)

100.00

Author Dr. Aharddas Bandoba Dige
Publisher Parshawanath Vidyapeeth, Varanasi
Language Hindi
Edition 1st edition,1989
ISBN -
Pages 256
Cover Hard Cover
Size 14 x 2 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code PV00052
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Description

जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन (Jain Yog Ka Aalochanatamak Adhyayan) भारतीय संस्कृति की अविच्छिन्न और विशाल परम्परा में विभिन्न मत- वादों या आचार-विचारों का अद्भुत समन्वय है। यद्यपि वे विभिन्न आचार-विचार अपनी विशिष्टताओं के कारण अपना अलग-अलग अस्तित्त्व रखते हैं, तथापि उनमें एकसूत्रता भी पर्याप्त है। कितने ही ऐसे तत्त्व हैं, जो प्रकारान्तर से एक दूसरे के पर्याय अथवा एक दूसरे के पूरक हैं। भारतीय योग-परम्परा भी इस दृष्टि-बोध का अपवाद नहीं है। योग परम्परा में भी भारत की प्रमुख तीन धाराएँ अन्तर्भुक्त हैं- वैदिक, बौद्ध एवं जैन। कुछ संदर्भों में साम्य होते हुए भी तीनों का अपना वैशिष्ट्य है, जिन पर इनकी अपनी संस्कृति को छाप स्पष्ट है। वैदिक धारा में योग विषयक विवेचन विश्लेषण अधिकता से हुआ है; बौद्ध धारा में भी योग की व्याख्या अनेकविध हुई है, लेकिन जैनधारा में योग के सम्यक् एवं आलोचनात्मक उपवृहण की अपेक्षा सर्वदा रही है और इसी उद्देश्य से प्रेरित होकर प्रस्तुत शोध-प्रबंध का उपस्थापन हुआ है। वस्तुतः जैन योग परम्परा की सम्यक् व्याख्या, उसके बिखरे हुए अवयवों का संगठन तथा विशाल योग वाङ्मय का सुसम्बद्ध अध्ययन तथा तत् प्रसूत तत्त्वों का प्रस्तुतीकरण अपने आप में एक महार्थ प्रयास की अपेक्षा रखता है। इस दृष्टि से लेखक का यह प्रयास धमसाध्य अवश्य है, लेकिन समयसाध्य भी है। लेखक ने प्रयास किया है कि जैन योग का एक स्पष्ट स्वरूप, उसकी व्याख्या, सम्बद्ध अवयवों का उद्घाटन यथाशक्य प्रस्तुत किया जाय ताकि भारतीय योग के अध्येताओं को एक सुलझी दृष्टि प्राप्त हो सके, क्योंकि बिना जैन योग का अध्ययन चिन्तन किए सम्पूर्ण भारतीय योग परम्परा का ज्ञान अधूरा ही रहेगा। इसी सिलसिले में लेखक ने यह भी ध्यान रखा है कि जैन योग के विभिन्न संदभों में भारतीय अन्य योग परम्पराओं के विचारों का भी यथाशक्य तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत हो।

प्रस्तुत शोध-प्रबंध सात अध्याओं में विभक्त है। ‘भारतीय परम्परा में योग’ नामक पहले अध्याय में सर्वप्रथम योग-परम्परा की पृष्ठभूमि, योग शब्द एवं उसका अर्थ, योग का स्रोत एवं उसके क्रमिक विकास पर प्रकाश डालने का प्रयास है। इसमें वेद, उपनिषद्, महाभारत, गीता, स्मृति, भागवतपुराण, योगवासिष्ठ आदि ग्रंथों में प्रतिपादित योग-विषय की चर्चा की गई है। साथ ही हठयोग, नाथयोग, शैवयोग, पातंजल योग, अद्वैत दर्शन आदि के अनुसार भी योग के विभिन्न अंगों का विवेचन-विश्लेषण हुआ है, क्योंकि वैदिक वाङ्गमय के सर्वेक्षण के बिना योग-परम्परा का न विकास ही दिखाया जा सकता है और न भारतीय योग परम्परा का समुचित मूल्यांकन ही हो सकता है। इसी अध्याय में बौद्ध परम्परा सम्मत योग का भी दिग्दर्शन कराया गया है क्योंकि इसके अभाव में जैन योग का समुचित विश्लेषण कर पाना संभव नहीं। बतः इस अध्याय का उपयोग वस्तुतः इस शोध-प्रबंध में पीठिका स्वरूप है।

दूसरे अध्याय में ‘जैन योग साहित्य’ का समुचित परिचय दिया गया है, क्योंकि जैन योग-विषयक ग्रंथों के विवेचन-विश्लेषण से ही जैन योग का समुचित स्वरूप स्थिर किया जा सकता है और विकास क्रम भी स्थिर किया जा सकता है। जैन योग विषयक प्रमुख ग्रंथ इस प्रकार हैं-ध्यानशतक, मोक्षपाहुड, समाधितंत्र, तत्त्वार्थसूत्र, इष्टोपदेश, योगबिन्दु, परमात्मप्रकाश, योगसार, योगशतक, ब्रह्मसिद्धान्तसार, योगविशंति, योगदृष्टिसमुच्चय, पोडशक, आत्मानुशासन, योगसार प्राभृत, ज्ञानसार, ध्यानशास्त्र अथवा तत्त्वानुशासन, योगशास्त्र, ज्ञानार्णव आदि।

‘योग का स्वरूप’ नामक तीसरे अध्याय में योग का महत्त्व एवं लाभः योग के लिए मन की समाधि एवं प्रकार, योगसंग्रह, गुरु की आवश्यकता एवं महत्त्व, आत्मा-कर्म का संबंध, योगाधिकारी के भेद, आत्मविकास में जीव की स्थिति, चित्तशुद्धि के उपाय, योग के विभिन्न प्रकार एवं अनुष्ठान, योगी के प्रकार, जप तथा उसका फल, कुण्डलिनी का महत्त्व आदि विषयों का वर्णन किया गया है, ताकि जैन योग के स्वरूप का विवेचन स्पष्टतापूर्वक हो सके। वस्तुतः उक्त विषयों के प्रतिपादन से ही जैन योग की सर्वांगीण व्याख्या प्रस्तुत की जा सकती है।

चौथे अध्याय में ‘योग के साधन आचार’ के विषय में विचार किया गया है। इस अध्याय के दो परिच्छेद हैं- प्रथम परिच्छेद के अंतर्गत वैदिक एवं बौद्ध परम्परान्तर्गत आचार पर संक्षिप्त टिप्पणी प्रस्तुत की गई है और प्रमुख रूप से जैन आचार के अन्तर्गत श्रावकचार-विषयक आचार-नियमों का उल्लेख किया गया है। इस संदर्भ में अणुव्रत, रात्रिभोजनविरमणव्रत, गुणव्रत, शिक्षाव्रत, प्रतिमाएँ एवं सत्कर्मों का निरूपण क्रमशः हुआ है। दूसरे परिच्छेद में श्रमण के आचार-नियमों का प्रतिपादन किया गया है। इसमें पंचमहाव्रत एवं उनकी भावनाएँ, गुप्तियाँ एवं समितियाँ, षडावश्यक, धर्म, अनुप्रेक्षाएँ, संलेखना, परीषह, तप, उसका महत्त्व एवं उसके भेद, विभिन्न परंपराओं में तप का विवेचन, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार एवं धारणा का यथाशक्य प्ररूपण हुआ है। जैन योग की स्पष्टता के लिए इस अध्याय का भी बड़ा महत्त्व है, क्योंकि योग और बाचार का संबंध परम्परावलम्बी है। अतः उक्त आचार नियमों के पर्यालोचन से ही जैनबोग के पोषक तत्त्वों का परिज्ञान हो सकता है।

‘योग के साधन रूप-ध्यान’ की व्याख्या करना पाँचवें अध्याय का प्रतिपाद्य है, जिसके अन्तर्गत सर्वप्रथम वैदिक एवं बौद्ध योग में ध्यान की स्थिति, स्वरूप एवं प्रकार आदि की चर्चा है और बाद में जैन योग के अनुसार ध्यान की विस्तृत व्याख्या की गई है। व्याख्या के क्रम में प्रयत्न किया गया है कि जैन- योगानुसार ध्यान के विभिन्न अंगों-प्रत्यंगों का समुचित प्रतिपादन हो, क्योंकि ध्यान योग का प्रमुख अंग है और बिना इसके समुचित विवेचन के जैनयोग संबंधी ज्ञान का सम्यरूप से प्रतिपादन नहीं किया जा सकता।

छठे अध्याय का विषय आध्यात्मिक विकास है, जिसके अन्तर्गत क्रमशः वैदिक एवं बौद्ध योग के अनुसार क्रमिक आध्यात्मिक विकास का वर्णन हुआ और इसके बाद जैन योगानुसार आध्यात्मिक विकास की विस्तृत भूमिकाए प्रस्तुत की गई हैं। इन्हीं सन्दर्भों में क्रमशः कर्म, आत्मा तथा कर्म का सम्बन्ध; लेश्याए, गुणस्थानों का वर्गीकरण तथा योगविहित आठ दृष्टियों का समुचित प्रतिपादन किया गया है। इसी क्रम में आध्यात्मिक विकास के अन्यान्य सोपानों की भी चर्चा हुई है। वस्तुतः यह अध्याय योग फलित अध्यात्म विकास की ही विवृत्ति करता है। इसलिए यह अध्याय भी योग का ही पूरक सन्दर्भ है।

सातवें अध्याय का विषय ‘योग का लक्ष्य-लब्धियां एवं मोक्ष’ है, जिसमें वैदिक, बौद्ध एवं जैन परम्पराओं में वर्णित विभिन्न लब्धियों का तथा मोक्ष का विचार किया गया है और योगानुसार सिद्धजीवों के प्रकारों तथा उनकी स्थिति का वर्णन किया गया है। अध्याय का सर्वोपरि महत्त्व इसलिए है कि इसमें योग के लक्ष्य-तत्त्व निर्वाण या मोक्ष का प्रतिपादन हुआ है।

इस प्रकार जैन योग पर सर्वाङ्गीण विवेचन प्रस्तुत करते हुए शोध-प्रबंध के अन्त में ‘उपसंहार’ लिखा गया है, जिसमें जैन योग की मौलिक विशिष्टताओं का निदर्शन हुआ है। यद्यपि जैन योग कुछ अंशों में सामान्य भारतीय योग परंपरा का हो अनुकरण करता है तथापि कुछ अंशों में अपना स्वतन्त्र वैशिष्टय भी रखता है, जो इसकी मौलिक देन है।

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