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Kashmiriya Shaiva Darshan Evam Spanda Shastra (कश्मीरीय शैवदर्शन एवं स्पन्दशास्त्र)

765.00

Author Dr. Shyamakant Dwiwedi ‘Anand’
Publisher Chaukhamba Surbharti Prakashan
Language Hindi & Sanskrit
Edition 2019
ISBN 978-81908046-6-0
Pages 450
Cover Hard Cover
Size 14 x 2 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code CSP0404
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Description

कश्मीरीय शैवदर्शन एवं स्पन्दशास्त्र (Kashmiriya Shaiva Darshan Evam Spanda Shastra) स्पन्द क्या है? स्पन्द चैतन्य के विकास की अनन्त यात्रा है। स्पन्द अनन्त की आत्मगवेषणा है- यह अपने स्वस्वरूप के दर्शन की उत्कण्ठा है। यह अपने ‘मैं’ की खोज है? अरुणाचलम् के महर्षि रमण ने कहा था कि यदि तुमसे पूछा जाता है कि ‘तुम कौन हो?’ तो तुम कहते हो- ‘मैं हूँ’, किन्तु क्या तुमने कभी यह खोजा कि यह ‘मैं’ कौन है? तुम को खोजो। यह ‘मैं’ ही सृष्टि के अन्तर्गर्भित रहस्य का निगूढ़तम तत्त्व है।

स्पन्दशास्त्र भी कहता है कि ‘सब कुछ’ को जानने के लिए सब कुछ की खोज मत करो; बल्कि अपने ‘मैं’ की खोज करो। तुम्हारे इसी ‘मैं’ में ही ‘सब कुछ’ छिपा हुआ है। स्पन्दशास्त्र इसी ‘मैं’ की खोज है। यह ‘परमशिव’ का ‘अहंप्रत्यवमर्श’ है। यह ‘अनुत्तर’ की आत्म-अनुसंधित्सा है, आत्मगवेषणा है, अपने ‘अहं’ को जानने का सूक्ष्मतम व्यापार है। यह निस्पन्द की स्पन्द के माध्यम से होने वाली अहंविमर्शात्मक स्फुरणा है। ‘परासंवित्’ का अहंप्रत्यवमर्श, उसकी पूर्णाहन्ता का विमर्श, उसकी आत्मदिदृक्षा, उसकी आत्म-प्रत्यभिज्ञा, उसका आत्मावलोकन, अपनी शक्ति के दर्पण में अपने ‘अहं’ का साक्षात्कार ही स्पन्द है। इसी स्पन्दात्मक ‘मैं’ से निस्पन्द भी स्पन्दायमान है।

स्पन्दशास्त्र वह चरम अनुभूति है, जो इस चरम सत्य को उ‌द्घाटित करती है कि इस तथाकथित जड़-चेतनात्मक जगत् में ‘जड़’ कोई है ही नहीं, सर्वत्र चैतन्य का ही विराट् प्रसार है, सृष्टि के प्रत्येक पदार्थ में केवल चैतन्य का ही उल्लास है। जड़त्व और भौतिकवाद असत्य है, सर्वचिन्मयतावाद ही सत्य है। ‘जड़’ चैतन्य की ही सुषुप्त अवस्था है, किन्तु चैतन्यशून्य या जड़ नहीं है। स्पन्दशास्त्र भौतिकवादियों की भाँति जड़ से चैतन्य की उत्पत्ति नहीं मानता, प्रत्युत चेतन से ही (तथाकथित) जड़ की उत्पत्ति मानता है। जड़ वह है, जिसमें चैतन्य तो है; किन्तु वह सुषुप्तावस्था में है। स्पन्दशास्त्र यह मानता है कि ऐसी कोई अवस्था ही नहीं है, जो शिव न हो ‘न सावस्था न यः शिवः। इस दर्शन के अनुसार अद्वैत की वह दृष्टि भी भ्रान्तिपूर्ण है, जहाँ यह माना जाता है कि अद्वैत ऐसा छुईमुई का पौधा है कि द्वैत का स्पर्श हुआ नहीं कि वह सिकुड़ जाता है। इसकी मान्यता है कि द्वय का सामरस्य ही अद्वैत है। यह परिणामवाद, विवर्तवाद, असत्कार्यवाद, मायावाद आदि सभी से पृथक् आभासवाद एवं स्वातंत्र्यवाद में विश्वास करता है।

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