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Lakwa Ki Prakratik Chikitsa (लकवा की प्राकृतिक चिकित्सा)
₹25.00
Author | Dharmchand Saravagi |
Publisher | Sarv Sewa Sangh Prakashan |
Language | Hindi |
Edition | 12th edition |
ISBN | 978-93-83982-40-0 |
Pages | 72 |
Cover | Paper Back |
Size | 14 x 2 x 22 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | SSSP0104 |
Other | Dispatched in 1-3 days |
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लकवा की प्राकृतिक चिकित्सा (Lakwa Ki Prakratik Chikitsa) शरीर के स्नायु-संस्थान के एक या अनेक तन्तुओं की संचालन शक्ति का नाश हो जाना ‘लकवा’ कहलाता है। कभी-कभी लकवा सम्पूर्ण देह में लग जाता है। जिस अंग में लकवा लगता है, वह अंग गति-शून्य हो जाता है और धीरे-धीरे सूखने लगता है। वह फिर काम के लायक नहीं रहता और हिल-डुल नहीं सकता।
लकवा के कई नाम हैं। जैसे, पक्षाघात, पक्षवध, फालिज तथा अंग्रेजी में ‘पैरेलिसिस’। यदि हम कहें कि वस्तुतः लकवा स्वयमेव कोई रोग नहीं होता तो यह गलत न होगा, क्योंकि साधारणतः मस्तिष्क, रीढ़ और किसी स्नायुविशेष के रोग से ही विभिन्न प्रकार का लकवा उत्पन्न होता है। जब किसी रोग द्वारा ये सब स्नायु-केन्द्र या स्नायु विकृत हो जाते हैं तो उनके अधीनस्थ अंग में जड़ता आ जाती है। यही लकवा है। लकवा और कुछ नहीं, यह केवल मस्तिष्क आदि यन्त्र की रोगग्रस्त अवस्था का एक लक्षणमात्र होता है। यही कारण है कि प्राकृतिक चिकित्सा में जिस स्नायुकेन्द्र के रोग से यह लक्षण उत्पन्न होता है, साधारणतः उसीकी चिकित्सा की जाती है, न कि लकवारूपी लक्षण की।
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