Tantracharya Gopinath Kaviraj Aur Yog Tantra Sadhna (तंत्राचार्य गोपीनाथ कविराज और योग तंत्र साधना)
₹60.00
Author | Ramesh Chandra Awasthi |
Publisher | Vishwavidyalay Prakashan |
Language | Hindi |
Edition | 4th edition, 2014 |
ISBN | 978-93-5146-016-9 |
Pages | 108 |
Cover | Paper Back |
Size | 14 x 2 x 21 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | VVP0006 |
Other | Dispatched In 1 - 3 Days |
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योग तंत्र साधना (Yoga Tantra Sadhna) सिद्धियों के सम्बन्ध में परिचर्चा करते हुए पूज्यचरण कविराजजी ने लिखा है, “मायातीत शुद्ध विद्या अथवा सरस्वती का आश्रय करके जिन सिद्धियों का उदय होता है, उनका नाम तत्त्वमूलक परासिद्धि है। लौकिक कामों के लिए जिन सिद्धियों की जरूरत होती है, उन्हें अपरा सिद्धि कहते हैं। परा-अपरा दोनों ही खण्ड सिद्धियाँ हैं-महासिद्धि ही श्रेष्ठतम है, जिनमें पहली है समलीकरण, दूसरी शिवत्व-लाभ अथवा परम शिव की अवस्था। यही वास्तविक पूर्णत्व हैं। इस अवस्था में पूर्ण स्वातन्त्र्य आता है। इच्छा-मात्र से भुवनरचना या विश्वरचना की शक्ति आती है। पंचकृत्यकारिता का आविर्भाव इसी समय होता है।
“बौद्धमत में सुखावती की रचना अमिताभ बुद्ध द्वारा हुई थी, ऐसी प्रसिद्धि है। विश्वामित्र की संसार-सृष्टि का वर्णन शास्त्र में है। तान्त्रिक अध्यात्म दृष्टि का लक्ष्य इसी परिपूर्ण अवस्था को पाना है, मात्र स्वर्ग आदि पूर्वलोक और लोकान्तर में गति अथवा कैवल्य या निरंजन भाव की प्राप्ति या मायातीत अधिकारी का पद पाना ही नहीं। मनुष्य मात्र में यह अवस्था पाने की स्वरूपयोग्यता है। यही तान्त्रिक सृष्टि का अवदान है।”
प्राचीन आर्य लोगों में यह धारणा भी न थी कि सभ्य समाज का मनुष्य बिना ज्ञान, विद्योपार्जन अथवा देववाणी संस्कृत में बाह्य भाव से स्तुति या उपासना न करके केवल प्राण क्रिया संयम के द्वारा, मात्र इच्छा करने पर भी एक साधारण मानव के लिए ईश्वर के साथ युक्त होने का सशक्त उपाय है। शिव के इसी योग पंथ का दूसरा नाम तन्त्र है। तन्त्र की अद्भुत शक्ति प्रत्यक्ष करने के पश्चात् ही आर्य ब्राह्मणों ने शिव को देवतारूप में स्वीकार तथा ग्रहण किया था। शिव को पाकर आर्य सभ्यता गौरव के सर्वोच्च शिखर पर उठ गई थी। यह तन्त्र विद्या अपूर्व वैज्ञानिक भित्ति पर स्थापित है।
समष्टि में तन्त्रधर्म कहने से शिव द्वारा प्रचारित शक्ति उपासना ही मान्य है। योग का इस साधना से घनिष्ठ सम्बन्ध है। यह तन्त्रधर्म इतना उदार है कि इसमें आर्य, अनार्य आदि सभी साधारण व्यक्तियों को प्रवेश पाने का अधिकार है। यह तन्त्रधर्म ही वास्तव में सार्वजनीन धर्म है, जो सार्वभौमिक मानव-समाज के लिए उपयोगी है। इसीलिए एक समय यह धर्म सारे भारतवर्ष में प्रसारित था। वैदिक अथवा ब्राह्मण धर्म में जब चारों ओर विधि और निषेध के द्वारा प्रवेश वर्जित था तब यह धर्म वैदिक धर्म के प्रतिपादस्वरूप सारे भारत में फैला।
शिव का कथन है कि स्वस्थ, सबल तथा रोगहीन शरीर द्वारा युवावस्था से ही इसकी साधना आरम्भ होती है। तन्त्रधर्म के साधन विशेषतः अध्यात्म धर्म के लिए यह प्रशस्त समय माना गया है। शिव के विचार से जाति कहने से स्त्री और पुरुष मात्र दो ही जातियाँ मनुष्य की मानी गई हैं। इसके अलावा मनुष्य-समाज के बाहर पशु, पक्षी, कीट, उद्भिज आदि की भाँति जाति मानी गई है। मनुष्य-समाज में कर्म के अनुसार जो जाति-प्रथा प्रचलित है, उसे वृत्ति कहना अधिक संगत है। शिव की दृष्टि में हरिजन, क्षत्रिय या ब्राह्मण एक ही है। उनके पास पहुँचने के लिए एक ही आसन पर बैठना होगा।
शिव के अनुसार जीव-मात्र ही मोक्ष का अधिकारी है। स्त्री और पुरुष दो जातियाँ होने पर भी उनके अधिकार समान हैं। अकेले स्त्री या पुरुष अधूरा है- असम्पूर्ण सत्ता-मात्र। नारी और पुरुष दोनों ही प्रणय में आबद्ध सृष्टि-कार्य में सक्षम होने पर एक पूर्ण सत्ता होते हैं। दोनों का सम्मिलित जीवन ही साधना का अधिकारी है। अकेले संसार साधन अस्वाभाविक है। नारी और नर का मिलित जीवन ही संसार है। इनकी प्रथम प्रवृत्ति है सृष्टि अर्थात् प्रजासृष्टि । इसकी प्रधान उपयोगिता है शक्ति-लाभ करके उच्चतर शक्तियों के विकास के फलस्वरूप कर्म एवं भोग और बाद में आत्मज्ञान का प्रसार और मोक्षमार्ग में गति।
इतना समझ लेना आवश्यक है कि सबकुछ ही प्रकृति को ही अवलम्बन करके होगा। तन्त्र के मत से साधन और पशु-जीवन के भोग, सभी सहज-सरल प्राकृतिक नियमानुसार होते हैं। जीव के जीवन में कर्मप्रवृत्ति जटिलता की सृष्टि करती है, क्योंकि इस कर्म के फलस्वरूप क्रम से प्राकृतिक नियमों के द्वारा ही गति होती है, जो कि बाद में जीव को ऊर्ध्व या अधोगामी करता है। इसीलिए इस धर्म में मनुष्य संयत भाव से भोग के साथ साधन को लेकर चलता है, जिसके फलस्वरूप निवृत्ति होती है। वास्तविक ज्ञान का उन्मेष होता है तथा जीव यथार्थ साधन के फलस्वरूप मुक्ति का अधिकारी होता है। बार- बार दुःखमय जीवन, जन्म, जरा, मृत्यु तथा नाना भाँति के दुःखमय कर्मों से निवृत्ति ही मुक्ति है। साधन द्वारा क्षुद्र स्वार्थमय अनुभव का विनाश ही निवृत्ति है। जीव का स्वरूप है सच्चिदानन्द शिव, इसी बोध की प्रतिष्ठा ही साधना का फल है।
सांख्य के मत से इस सृष्टि में जैसे प्रकृति ही श्रेष्ठ है, पुरुष निष्क्रिय है, उसी प्रकार शिवोक्त तन्त्र में भी कहा गया है कि सृष्टि, स्थिति, लय की अधिष्ठात्री एवं चतुर्वर्ग फलदात्री या आद्या शक्ति भगवती स्वयं है, अन्य किसी में वह शक्ति नहीं है जो जीव को मुक्ति प्रदान कर सके। वैदिक देवता की उपासना भी प्रकृति या शक्ति की ही उपासना है, क्योंकि जीव अर्थात् मनुष्य के बोध में जो यह पुरुष और नारी है, यह दोनों ही प्रकृति या शक्ति ही हैं, जिसको ब्रह्म, आत्मा, भगवान् या ईश्वर कहा जाता है।
वह शक्ति की ही अनुभूति है। वैदिक देवता, सूर्य, चन्द्र, इन्द्र, ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि को पुरुष कहा गया है, किन्तु वास्तव में इनकी मूल प्रकृति के अन्तर्गत प्रत्येक विभिन्न क्षेत्र में शक्ति ही केन्द्रस्थ है। इसको लेकर चाहे जितना विवाद किया जाए, वास्तव में प्रकृति के इस विशाल साम्राज्य अथवा सृष्टि के अन्तर्गत मानव-जीव के लिए ब्रह्म या पुरुष जिस प्रकार धारणा के अतीत है, आद्याशक्ति या प्रकृति-सृष्टि की अधिष्ठात्री जो महामाया या महाशक्ति है, वह भी जीव की धारणा के अतीत है।
शिव ने समझा था कि वैदिक देवता की उपासना वास्तव में प्रकृति या शक्ति की उपासना है, इसीलिए वे अन्य मार्ग में न जाकर प्रारम्भ से ही मूल प्रकृति को ही-जिसको देवता लोग जगदम्बा या विश्व-जननी के रूप में स्तुति करते हैं, को ही जीव-मात्र का इष्ट बताकर उसकी ही उपासना के लिए जीव को उद्बुद्ध किया था। हम लोगों के अन्दर नारी और नर का यह बोध इस तरह जटिल भाव से मिश्रित हो गया है कि हम लोग वास्तविक प्रकृति जो कि इस सृष्टि के मूल में इस विश्व- जगत् का प्रसव, रक्षण एवं परिवर्तन कर रही है, उसे तथा उस एकमात्र पुरुष को जो प्रकृति के अतीत अव्यय चेतना या परमात्मा है, दोनों के ही स्वरूप-निर्धारण करने में चिर वंचित हैं।
तन्त्र-शास्त्र में क्रम विकास का अपूर्व समर्थन है। तन्त्र में विवर्तनवाद केवल वादानुवाद ही नहीं है, एक जीवन्त सत्य है। हम लोग मानव-समाज के मध्य जिन्हें निम्न स्तर का समझते हैं, वास्तव में हमारी यह गलत धारणा है। शिव कहते हैं कि सबसे निम्न स्तर का व्यक्ति वह है जिसमें मात्र देहात्म बुद्धि है, अर्थात् जो केवल शरीर को ही सब-कुछ समझता है-पशु उसका दूसरा नाम है।
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