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Shat Panchashika (षट्पञ्चाशिका)

35.00

Author Dr. Kamala Kant Pandey
Publisher Sharda Sanskrit Sansthan
Language Sanskrit & Hindi
Edition 2005
ISBN -
Pages 50
Cover Paper Back
Size 12 x 1 x 17 (l x w x h)
Weight
Item Code SSS0102
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Description

षट्पञ्चाशिका (Shat Panchashika) वेदाङ्गों में ज्योतिषशास्त्र को नेत्र कहा गया है। यथा- “ज्योतिषं नेत्रमुच्यते”। नेत्र दो प्रकार का होता है- (१) बाह्यनेत्र (२) आभ्यन्तरनेत्र वाह्यनेत्र से दृश्यमान जगत एवं उसमें घटित होने वाली घटनाओं को देखा जाता है। आभ्यन्तर नेत्र (ज्यौतिषशास्त्ररूपी नेत्र) से अदृश्यमान जगत एवं उसमें घटित होने वाली घटनाओं का ज्ञान किया जाता है। ज्यौतिषशास्त्ररूपी नेत्र के विषय में कहा गया है-“यदुपचितमन्यजन्मनि शुभाशुभं तस्य कर्मणः प्राप्तिम् व्यञ्जयति शास्त्रमेतत्तमसि द्रव्याणि दीप इव।।”

त्रिस्कन्धात्मक (सिद्धान्त, संहिता और होरा) ज्यौतिष शास्त्र के अन्तर्गत प्रश्न विषयक ज्योतिष शास्त्र का ‘षट्पञ्चाशिका’ नामक यह लघुकलेवर ग्रन्थ गागर में सागर की भाति अपने आप में परिपूर्ण है। इस के लेखक दैवज्ञ शिरोमणि वराहमिहिराचार्य के पुत्र पृथुयश देवज्ञ ने मात्र ५६ श्लोकों के माध्यम से मानवजीवनोपयोगी विषयों से सम्बन्धित प्रश्नोत्तरों का उल्लेखकर ज्योतिष जगत में (फलादेश में) अद्वितीय स्थान प्राप्त किया है।

सात अध्यायों में विभक्त प्रस्तुत षट्पञ्चाशिका ग्रन्थ की विषयवस्तु निम्नांकित है-

१. होराध्याय – इस अध्याय में मात्र सात श्लोक हैं, जिनमें प्रश्न विचार के नियम, भावों का शुभाशुभत्वज्ञान, कार्य की सिद्धि एवं असिद्धि का ज्ञान, नष्ट वस्तु लाभ का ज्ञान, मुष्टिगतवस्तु का ज्ञान तथा मूक प्रश्न विचारादि का ज्ञान विवेचित किया गया है।

२. गमागमाध्याय – प्रस्तुत अध्याय में १७ श्लोक हैं। जिनमें गमनागमन का ज्ञान, जीवित-मरण का विचार, शत्रुमार्ग निवृत्ति का ज्ञान, यायि का शुभाशुभज्ञान, शत्रु के गमन-आगमन का योग एवं योगान्तर इत्यादि का ज्ञान वर्णित है।

३. जयपराजयाध्याय – प्रस्तुत अध्याय में मात्र पांच श्लोक हैं। जिनमें जयपराजय का ज्ञान, सन्धि-विरोधसम्बन्धि ज्ञान, यायि अथवा प्रवासी के आगमन आदि का ज्ञान वर्णित है।

४. शुभाशुभाध्याय – प्रश्नकर्त्ता के शुभाशुभ का ज्ञान लाभ-हानि का विचार, योगान्तर विचार, रोगी के शुभाशुभादि का विचार प्रस्तुत अध्याय में वर्णित है। इस में मात्र पांच श्लोक है।

५. प्रवास चिन्ताध्याय – प्रस्तुत अध्याय में आवागमन योग, योगान्तर विचार तथा प्रवासी के आगमन से सम्बन्धित विचार विशेष रूप से किया गया है। इस में पांच श्लोक संकलित है।

६. नष्टप्राप्यध्याय – इस अध्याय में चौर ज्ञान, तत्सम्बन्धि स्थान का ज्ञान, लाभालाभ का ज्ञान अर्थात् नष्ट वस्तु का लाभालाभ ज्ञान, नष्ट वस्तु की दिशा आदि के ज्ञान का विवेचन है। इसमें चार श्लोक हैं।

७. मिश्राध्याय – इस अध्याय में गर्भिणी सम्बन्धिज्ञान, वैवाहिक ज्ञान, वर्षा का ज्ञान, प्रवाससम्बन्धिज्ञान, हृदयस्थ स्त्री की स्थिति सम्बन्धि ज्ञान परदेश में रोगी के स्थिति का ज्ञान, परदेश में पिता की स्थिति आदि के ज्ञान का विचार किया गया है। इसमें तेरह श्लोक है तथा अत्यन्त पठनीय है।

प्रस्तुत “षट्पञ्चाशिका” की अद्यावधि अनेकों टीकायें हो चुर्की हैं। किन्तु इसकी विशेष उपयोगिता को दृष्टि में रखकर सरल एवं सुगम शालिनी नामक हिन्दी टीका विस्तार के साथ करने का मैंने प्रयास किया है। सारगर्भित भावों से युत, उत्पल दैवज्ञ कृत भट्टोत्पली संस्कृत टीका का भी समावेश किया गया है।

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