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Nityotsava (नित्योत्सवः)

425.00

Author Paramhansa Mishra
Publisher Chaukhamba Surbharti Prakashan
Language Sanskrit & Hindi
Edition 2017
ISBN -
Pages 402
Cover Hard Cover
Size 14 x 2 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code CSP0598
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Description

नित्योत्सवः (Nityotsava) ‘नित्योत्सव’ ग्रन्थ का यह नाम साभिप्राय विशेषण के समान है। यह शब्द उमानन्दनाथ (पूर्व नाम- श्री जगन्नाथ पण्डित) के परमाराध्य उमा-महेश्वर के ही प्रतिरूप भगवान् त्रिपुरसुन्दर और भगवती त्रिपुरसुन्दरी के रहस्यार्थ का द्योतक है। ‘उमा’ गवती त्रिपुरसुन्दरी और ‘आनन्द’ (स्वातन्त्र्य के प्रतीक महेश्वर) शिव के अर्थ को नित्य उत्सव के रूप में ही अभिव्यक्त करता है। जिस ग्रन्थ में चित् (ज्ञान का प्रकाश), आनन्द (शिव स्वातन्त्र्य का शाश्वत उल्लास) और इसके साथ सर्वेश्वरी इच्छाशक्ति, ज्ञान एवं क्रिया की त्रैपुर धारा विश्व को अभिषिक्त करने का शाश्वत उपक्रम हो, जहाँ पराम्बा का शाश्वत परम उल्लास नित्य उत्सव का रूप ले रहा हो, उसे ‘नित्योत्सव’ से सुन्दर किसी अन्य संज्ञा से विभूषित नहीं किया जा सकता। ऐसी यह प्रिय संज्ञा इस ग्रन्थ को अन्वर्थ रूप में पराम्बा की ओर से ही प्राप्त है।

इस आकर ग्रन्थ को संग्रथित करने के बाद ही श्री जगन्नाथ पण्डित ‘उमानन्दनाथ’ हो गये। इसी आधार पर ग्रन्थ के अन्त में ग्रन्थकर्तृ-प्रशस्ति के श्लोक छः में ग्रन्थकर्ता के रूप में गृहस्थाश्रम का नाम दिया गया है। इसके बाद दीक्षा हो गयी और प्रवृत्ति में परिवर्तन हो गया। निर्वृत्त श्रीमान् ग्रन्थकर्ता अब उमानन्दनाथ के रूप में प्रसिद्ध हो गये। होना भी चाहिये। व्यक्ति तो वही रहता है, लेकिन उपासना उसकी स्तरीयता की अभिवृद्धि कर देती है। पण्डित श्री जगन्नाथ शुक्ल श्रीविद्या में पूर्णाभिषिक्त होने के बाद श्री उमानन्दनाथ हो गये तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं। यह तो सम्प्रदाय की परम्परा की दृष्टि से स्वाभाविक भी है। दीक्षाप्राप्त पुरुष को ‘आस्तिक दीक्ष’ कहते हैं।

इनके सद्‌गुरुदेव श्री भासुरानन्दनाथ, जिन्हें इतिहास आचार्य भास्करराय दीक्षित ही मानता है; वे तो साक्षात् शिव ही थे। माता शारदा के वरद पुत्र के रूप में इनकी प्रसिद्धि उस समय भी थी और आज भी है। इनके विषय में ‘न भूतो न भविष्यति’ की उक्ति ही चरितार्थ होती है। ‘तन्त्रशास्त्रीय’ रहस्यद्रष्टा, मनीषी और विश्व के विद्यावरिष्ठ आचार्य के रूप में विश्व-प्रजाप्राण के वे भास्कर थे। उसके समान ही प्रकाशमान श्री भास्करराय दीक्षित का ही दीक्षा-नाम श्रीभासुरानन्द नाथ भी था। यहाँ दो बातों पर विशेष ध्यान देना आवश्यक है- प्रथम यह कि, श्री जगन्नाथ पण्डित सद्‌गृहस्थ थे। सद्गृहस्थ भी इस विद्या की साधना का अधिकारी होता है। इनके पिता का नाम श्री बालकृष्ण था और माता का नाम लक्ष्म्यम्बा था (श्लोक ३)। दूसरा यह कि, उपनाम श्रुतपेटव जगन्नाथ शुक्ल का गोत्र विश्वामित्र था। चोलदेशाधिपति भोसला राज्य परिवार द्वारा ये स्वयं समादृत थे।

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