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Laghu Siddhant Kaumudi (लघुसिद्धान्तकौमुदि)

255.00

Author Dr. Ramakant Pandey
Publisher Bharatiya Vidya Sansthan
Language Sanskrit & Hindi
Edition 1st edition, 2016
ISBN 978-93-81189-46-7
Pages 672
Cover Paper Back
Size 14 x 4 x 21 (l x w x h)
Weight
Item Code BVS0017
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Description

लघुसिद्धान्तकौमुदि (Laghu Siddhant Kaumudi) व्याकरण शास्त्र का परिचय अन्य शास्त्रों के उपकारक के रूप में प्राप्त होता है; इसीलिये समस्त वेदाङ्गों में इसको प्रधान अंग माना गया है। वह प्राधान्य अन्य शास्त्रोपकारकत्थ-रूप है। इसके विषय में कतिपय टीकाओं में चर्चा प्राप्त होती है, जो व्युत्पत्तिपरक अर्थ से भित्र है। व्युत्पत्ति तो अत्यन्त प्रसिद्ध है- व्याक्रियन्ते व्युत्पाद्यन्ते अनेन इति व्याकरणम् अर्थात् शब्दकर्मीभूत व्युत्पादन साधन को व्याकरण कहा जाता है। जबकि व्याकरण-परम्परा में साधु शब्दावधिक असाधु शब्दकर्मक नियमविशेष को व्याकरण कहते हैं। यह सामान्य लक्षण न केवल पाणिनीय व्याकरण के लिये, अपितु पाणिनि से पूर्व जिनका स्मरण सूत्रों में स्वयं भगवान् पाणिनि ने किया है, उन समस्त व्याकरणों में व्युत्पत्तिमूलक लक्षण संघटित होता है; किन्तु कोई आचार्य मात्र पाणिनीय व्याकरण के लिये ही लक्षण लिखते हुये कहते हैं कि पाणिन्यु- पज्ञं (व्याकरणम्) अर्थात् पाणिनि-कर्तृक आद्योच्चारणज्ञानविषयीभूर्त यत् तत् व्याकरणम्। इस प्रकार व्याकरण के स्वरूप के विषय में विभित्र आचार्यों ने विभिन्न मतों को उठाया है। यह व्याकरण तीन भागों में विभक्त होता है- प्रक्रिया, परिष्कार एवं दर्शन।

तीनों अंगों से पूर्ण शब्दसंस्कार-साधन को व्याकरण कहा जा सकता है। प्रक्रिया का तात्पर्य शब्दों के अन्याख्यान से है। शब्दविषयक अन्वाख्यान लघुतामूलक हो, इसके लिये भगवान् पाणिनि ने अष्टाध्यायी ग्रन्थ का निर्माण किया है और इसी ग्रन्थ को आधार मानकर व्याकरण की तीनों धाराये निकाली गयी है। क्रमशः तीनों धाराओं का पूर्ण परिचय आगे दिया जायेगा, किन्तु उसके पहले प्रक्रियापक्ष को दो तरह से हम जानते हैं। एक वह प्रकार है, जिसमें अष्टाध्यायी का कहीं भी क्रमभंग नहीं होता। उस पद्धति के अनुसार बनाये जाने वाले ग्रन्थ भी प्रक्रियाग्रन्थ कहे जाते हैं। इसके अनुयायी लोगों का कहना है कि ‘अष्टाध्यायी जगन्माता पिता किन्तु इसके अनुसार लक्ष्य का संस्कार अत्यन्त दुरुह हो जाता है। इसीलिये वरदराज-प्रभृति आचार्यों ने कौमुदी-जैसे महत्वपूर्ण ग्रन्थों का निर्माण कर प्रक्रिया की दूसरी धारा को जन्म दिया। यद्यपि इस धारा में अष्टाध्यायी का क्रमभंग हो जाता है. तथापि सरलता की दृष्टि से यह मार्ग अत्यन्त सुगम एवं सरल है। इसीलिये आज के इस परिवेश में भी अबाध गति से प्रवहमान है। वरदराज भट्टाचार्य ने लघुकौमुदी नामक शीर्षक भी बहुत ही रोचक दिया है, जिसके विषय में विचार है-सिद्धान्तानां कौमुदी सिद्धान्तकौमुदी- इस षष्ठीतत्पुरुष समास के बाद यह सन्देह होता है कि लघु किसका विशेषण है; कौमुदी का या सिद्धान्त का? तो कहा जा सकता है कि व्याकरण सिद्धान्त कोई भी लघु नहीं है; अपितु उन सिद्धान्तों की जो प्रकाशिका है, वह लघ्वी है।

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