Mantra Kosh (मन्त्रकोष:)
₹70.00
Author | Dr. Rajnath Tripathi |
Publisher | Sampurnananad Sanskrit Vishwavidyalay |
Language | Sanskrit |
Edition | 1st edition |
ISBN | - |
Pages | 51 |
Cover | Paper Back |
Size | 14 x 1 x 22 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | SSV0040 |
Other | Dispatched in 1-3 days |
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मन्त्रकोष: (Mantra Kosh)
मननात्त्राणकर्तारो मन्त्रा येन प्रकीर्तिताः।
तं वन्दे परमात्मानं स्वात्मानं सर्वदेहिनाम्॥
प्रकाश एव घनीभूतो मातुः कुहरङ्गतः।
समासाद्य यतः साध्याः कृतकृत्या बभूविरे।।
परदेवता तत्व परमप्रकाश की पराकाष्ठागत वह तत्व है जो समस्त भुवनों में वर्ण-पद-मन्त्र-कला-तत्व भुवन में विभक्त है तथा इन्हीं छः मार्गों से मूलाधार-स्वाधिष्ठान-मणिपुर-स्वाधिष्ठान-आज्ञा-विशुद्धि-सहस्त्रार यह सात कमलदलों से होकर प्राणका अपान में, अपान का समान में, समान का व्यान में, व्यान का उदान में, और उदान का पुनः प्राण में समाहार होकर जीव के उत्क्रमणकाल में पुञ्जीभूत होकर नवपुर-नवद्वारों से होकर शुभाशुभकर्मों के फलस्वरूप क्रमशः भूः, भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः, सत्यं इन सात ऊर्ध्व लोक तथा नीचे के क्रमशः अतल, वितल, सुतल, महातल, तलातल, रसातल, पाताल इन सात लोकों में जगत् का चौरासी लाख योनियों का जीव अपने-अपने कर्मों का भुक्ति-मुक्ति रूप फल प्राप्त करता है। इसे हम श्रीमद्भगवद् गीता के कुछ वचनों से इस प्रकार हृदयङ्गम कर सकते हैं।
यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतिलरिष्यति।
तदा गन्ताऽसि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च।। गीता-2/53/
अर्थात् हे अर्जुन ! कर्म-अकर्म के जिस मोहपाश मे तूं पड़े हो तथा मोह के भ्रम में पड़ी हुई तेरी बुद्धि इस भ्रम के दलदल से जब भली भाँति पार हो जायेगी, तब उस समय तुम सुने हुये और सुनने में आने वाले इस लोक और परलोक सम्बन्धी भोगों से वैराग्य को प्राप्त हो जावोगे।
श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्यस्यसि।। गीता-2/5311
हे अर्जुन ! भाँति-भाँति के वचनों को सुनने से विचलिति हुई तेरी बुद्धि जब परमात्मा शिव या वासुदेव में तुम्हारी भ्रमित बुद्धि स्थिर हो जायेगी, तब तुम योग को प्राप्त कर लोगे, इस प्रकार स्थितप्रज्ञ, अनुद्विग्न, स्पृहारहित, वीतराग-भय-क्रोध मुक्त होकर तेरी बुद्धि स्थिर हो जायेगी। हे अर्जुन ! जो पुरुष सम्पूर्ण कामनाओं को त्यागकर ममता-अहंकार स्पृहा से रहित हो जाता है, वही शान्ति को प्राप्त करता है। इस स्थिति को प्राप्त पुरुष योगी होकर ब्रह्मानन्द (शिवानन्द-भैरवानन्द) को प्राप्त कर लेता है। – गीता-अध्याय-2 श्लोक 66 से 72 तक।
अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे।
प्राणाप्राणगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणः॥
अपरे नियताहाराः प्राणान्याणेषु जुह्वति।
सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषा।। गीता-4/29-3011
इस प्रकार द्रव्ययज्ञादि से, तथा मन्त्रों के निरन्तर जपरूपयज्ञ से प्राप्त परतत्त्व त्रिपुरसुन्दरी तथा त्रिपुरासुरनाशक त्रिशूलीशिव, हिरण्याक्ष, हिरण्यकशिपुनाशक नारायण तथा भगवान् नृसिंह, रावणादि नाशक श्रीराम, कंस-शिशुपाल आदि नाशक भगवान् श्रीकृष्ण जब जपरूप ज्ञानयज्ञ से युक्त होकर भुक्ति-भुक्ति का अधिकार साधक को प्राप्त करा देते हैं तब मन्त्र योग से प्राप्तव्य परतत्व के ज्ञान से साधक इस दुरस्तर संसारसागर से पार हो जाता है।
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