Pratishtha Mayukha (प्रतिष्ठा मयूख अर्थात सर्व देव – प्रतिष्ठा पद्धतिः)
₹245.00
Author | Dr. Mahesh Chandra Joshi |
Publisher | Chaukhambha Sanskrit Series Office |
Language | Sanskrit & Hindi |
Edition | 2022 |
ISBN | 978-81-218-0177-X |
Pages | 544 |
Cover | Paper Back |
Size | 12x 3 x 18 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | CSSO0040 |
Other | Dispatched in 1-3 days |
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प्रतिष्ठा मयूख अर्थात सर्व देव – प्रतिष्ठा पद्धतिः (Pratishtha Mayukha) उत्तराञ्चल के अन्यतम शाक्तपीठ श्रीवाराही धाम देवीधुरा में स्थित संस्कृत महाविद्यालय में वेदपारायण और कर्मकाण्ड की जो शिक्षा मिली उसका प्रतिफल काशी में प्राप्त हुआ। सर्वोदय हाई स्कूल जयन्ती, पुनेठा इण्टर कालेज लोहाघाट और स्नातकोत्तर महाविद्यालय अल्मोड़ा से (स्नातक स्तरीय) शिक्षा ग्रहण करके पूज्य पिताजी की सत्प्रेरणा से काशी आकर हिन्दू विश्वविद्यालय से संस्कृत में स्नातकोत्तर उपाधि ग्रहण की और तभी प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्त्व विभाग में नियुक्ति होने पर पुराणों में प्राप्त धर्म, दर्शन आदि विविध विषयों पर कार्य करने के साथ ही पुराण-विषयानुक्रमणी के ‘विधि एवं आचार’ (LAW & CUSTOM) भाग के लेखन का सुअवसर मिला, जिसमें अकारादि क्रम से विन्यस्त शब्दों की टिप्पणियों में पुराणों के विधि- निषेध परक वचनों के समावेश के साथ ही विधि के अतिक्रमण एवं सदाचार के उल्लंघन और निषिद्ध कर्म में प्रवृत्ति से जन्य पाप (अपराध) तथा उसके फलस्वरूप लोक-परलोक में दुर्गति. नरक- यातना और कर्मविपाक (पुनर्जन्म में प्राप्य कष्टों आदि) के विवेचन के साथ हो पापियों (अपराधियों) के लिए प्रायश्चित्त और दण्ड-विधानों का निरूपण करने से मन में धार्मिक प्रवृत्ति के प्रति समादर की भावना परिनिष्ठित होती रही है। यह स्वाभाविक ही है-
कि चित्र यदि धर्मशास्त्रकुशलो विप्रो भवेद् धार्मिकः। पुनश्च, प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति बोर पुरातत्त्व विभाग के स्नातक स्तरीय पाठयक्रम में निर्धारित ‘धर्म’ (Religion) विषय के अध्यापन का अवसर प्राप्त होने पर मैंने इस विषय में अद्यावधि प्रकाशित सामग्री को अपूर्ण समझते हुए अधिकाधिक मौलिक सामग्री के संकलन का प्रयास किया है। धर्म केवल अध्ययन का ही विषय नहीं है, अपितु उसका आचरण भी आवश्यक है। धर्म को इतिहास की वस्तु बनाकर पढ़ने वाले स्वयं के जीवन में उसका आचरण अनिवार्य नहीं समझते। धर्म के आचार पक्ष या कर्मकाण्ड पक्ष की यथेष्ट जानकारी वाले अध्यापक विश्वविद्यालयों में विरले ही होते हैं। धर्माचरणरहित शिक्षक के द्वारा छात्रों को दी गई धर्म-शिक्षा भला क्या फलवती हो सकती है ? धर्म का इतिहास पढ़ने-पढ़ाने वालों को भी उसके कर्मकाण्ड पक्ष के इतिहास को उपेक्षित नहीं करना चाहिए। धर्म के सिद्धान्त पक्ष का ही नहीं, अपितु कर्मकाण्ड पक्ष का भो ज्ञान सुधी जनों को अवश्य होना चाहिए, क्योंकि उसके बिना व्यवहारतः उसमें प्रवृत्ति नहीं हो पाती। जबकि प्रत्येक व्यक्ति को महा- विपत्तियों से अपनी रक्षा हेतु यत्किञ्चित् धर्मकृत्यों का सम्पादन अवश्य करना चाहिए –
स्वल्पमप्स्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्।
धर्म के विषय में पुराणों से प्राप्त कुछ सामग्री को मैंने पुराण- विषयानुक्रमणी के विधि एवं आचार भाग के द्वितीय खण्ड में ‘धर्म’ शब्द की विस्तृत टिप्पणियों में समाविष्ट किया है। जिज्ञासु जन उसे देख सकते हैं।
धार्मिक कृत्यों के रूप में जो नित्य, नैमित्तिक और काम्य कर्म विहित हैं उनमें देवपूजा अपरिहार्य है। आधुनिक युग में जो संस्कृतज्ञ विद्वान्, पण्डित और अध्यापक कर्मकाण्ड तथा देवपूजा आदि कृत्यों के औचित्य से अनभिज्ञ हैं वे विद्याथियों अथवा जन- सामान्य की तद्विषयक जिज्ञासा का सम्यक समाधान नहीं कर पाते। एक ओर नास्तिकता है और दूसरी और पाखण्ड। इनके मध्य में है सनातन धर्म की आराधना पद्धति, जिसको अपना कर मनुष्य की सर्वतोमुखी अभ्युन्नति सम्भव है। अतः प्रतिष्ठामयूख ग्रन्थ के इस अनुवाद की भूमिका में मैने यथासम्भव देवपूजा के महत्त्व, मूत्तिपूजा के औचित्य आदि अनेक विषयों की सूचना संक्षेप में दी है और साथ ही देव-प्रतिष्ठा सम्बन्धी कृत्यों के विषयमें कुछ महत्त्वपूर्ण तथ्यों को भी समाविष्ट किया है। इस ग्रन्थ के अनुवाद में भी स्थान स्थान पर अपेक्षित सूचनाओं तथा मूलपाठ में अनुल्लिखित किन्तु वर्तमान पद्धतियों में प्राप्त कृत्यों को भी टिप्पणियों के साथ समायोजित क्रिया है। मुझे आशा है कि मेरा यह प्रयास देव-प्रतिष्ठा करने वाले आचार्यों और पण्डितों के साथ ही अध्यापकों, विद्याथियों और जनसामान्य के लिए भी उपयोगी होगा।
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