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Sumitra Nandan Pant Ka Gadya Sahitya (सुमित्रानन्दन पंत का गद्य साहित्य)

360.00

Author Dr. Suman Vishwakarma
Publisher Kala Prakashan
Language Hindi
Edition 2015
ISBN 978-93-81698-58
Pages 144
Cover Hard Cover
Size 14 x 1 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code KP0013
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Description

सुमित्रानन्दन पंत का गद्य साहित्य (Sumitra Nandan Pant Ka Gadya Sahitya) सुमित्रानन्दन पंत की काव्य-यात्रा ‘पल्लव’ से शुरू होती है एवं ‘गुञ्जन’, ‘ज्योत्सना’, ‘ग्राम्या’ आदि से होती हुई ‘लोकायतन’ तक पहुँचती है लेकिन उनकी काव्यधारा के साथ-साथ उनका गद्य-साहित्य भी उतना ही प्रभावशाली है। पंत के गद्य-साहित्य पर उनकी कविता की तुलना में बहुत कम लिखा गया है। प्रस्तुत पुस्तक इसी अभाव की पूर्ति करती है। इसमें पंत के समूचे गद्य-साहित्य का सर्वांगीण विवेचन-विश्लेषण है। कहना न होगा कि पंत के अध्येताओं के लिए यह एक अनिवार्य पुस्तक है। प्रस्तुत शोध-प्रबंध छः अध्यायों में विभाजित है।

प्रथम अध्याय में सुमित्रानन्दन पंत के जीवनवृत्त, व्यक्तित्व एवं साहित्य-यात्रा का संक्षिप्त परिचय दिया गया है। जीवन रेखा में पंत के प्रारम्भिक जीवन का वर्णन करते हुए उनकी शिक्षा व शिक्षा के अर्जन में सहायक पारिवारिक परिवेश के साथ महापुरुषों के व्यक्तित्व का प्रभाव भी लक्षित किया गया है। पंतयुगीन परिस्थितियों के साथ-साथ तत्कालीन स्वाधीनता संग्राम में पंत की भूमिका को भी उनकी रचनाओं के माध्यम से दर्शाया गया है। पंत के व्यक्तित्व निर्माण के नियामक तत्वों के वर्णन के साथ पत्र, संस्मरण आदि के माध्यम से उनके व्यक्तित्व का आकलन किया गया है। प्रथम अध्याय का अन्त पंत की साहित्य-यात्रा के संक्षिप्त परिचय से किया गया है।

शोध-प्रबन्ध के द्वितीय अध्याय के अन्तर्गत हिन्दी गद्य के विकास का विस्तृत वर्णन करने के साथ ही हिन्दी-उर्दू भाषा विवाद का विवेचन भी किया गया है। हिन्दी गद्य की विभिन्न विधाओं (उपन्यास, कहानी, निबन्ध एवं नाटक) के अभ्युदय की चर्चा करने के उपरान्त द्विवेदी युग और उस युग की गद्य विधाओं के विकास का वर्णन है। छायावाद के स्वरूप विवेचन के साथ उसके समर्थन एवं विरोध को विभिन्न समीक्षकों की दृष्टि से व्याख्यायित किया गया है।

शोध-प्रबन्ध के तृतीय अध्याय में पंत के कथाकार रूप को दर्शाने एवं स्थापित करने के लिए छायावादयुगीन हिन्दी कहानी का संक्षिप्त परिचय दिया गया है। कहानी का वर्गीकरण प्रस्तुत करते हुए उसकी सामान्य विषय-वस्तु का विवेचन भी किया गया है। इसके अतिरिक्त पंत की कहानियों में वर्णित प्रणय दृष्टि, मानवतावादी दृष्टि को दर्शाया गया है। उनकी कहानियों के माध्यम से नव्य समाज रचना के प्रयास की विवेचना की गई है। इसी क्रम में क़हानी कला के तत्वों के आधार पर ‘पाँच कहानियाँ’ संग्रह का मूल्यांकन करने के साथ पंत के एकमात्र उपन्यास ‘हार’ का उपन्यास कला एवं छायावादयुगीन दृष्टि से मूल्यांकन किया गया है।

शोध-प्रबन्ध के चतुर्थ अध्याय में निबन्ध की अवधारणा एवं उसके प्रकारों का वर्णन करते हुए निबन्ध के उत्थान का विवेचन किया गया है। निबन्धकार पंत के निबंध-संग्रहों का संक्षिप्त परिचय देते हुए उनके प्रमुख निबन्ध-संग्रह ‘शिल्प और दर्शन’ के माध्यम से पंत के निबन्धकार व्यक्तित्व का आकलन किया गया है। इसी क्रम में नाटक की अवधारणा का विवेचन करते हुए बीसवीं सदी में नाटक के विकास का वर्णन करते हुए उसके विविध रूपों एवं महत्व को प्रतिपादित किया गया है। इसी अध्याय में पंत के नाटकों का भी संक्षिप्त परिचय दिया गया है।

शोध-प्रबन्ध के पंचम अध्याय में छायावादयुगीन आलोचना के विकास में साहित्यिक विवादों की भूमिका के अन्तर्गत कथा-साहित्य, नाटक एवं ‘हंस’ के आत्मकथांक आदि साहित्यिक विवादों का वर्णन किया गया है। नएपन की पहचान का विवेचन करते हुए छायावाद और रहस्यवाद प्रकरण की विस्तृत चर्चा की गई है। ‘पल्लव’, ‘आधुनिक कवि (2)’ की भूमिका तथा ‘छायावाद : पुनर्मूल्यांकन’ के माध्यम से पंत के सम्पूर्ण आलोचक व्यक्तित्व का वर्णन प्रस्तुत किया गया हैइसी क्रम में समालोचक पंत के काव्य सिद्धान्त के अन्तर्गत उनके काव्य के स्वरूप, काव्य-हेतु, काव्य-प्रयोजन, काव्य के तत्व, काव्य के भेद, काव्य-वर्ण्य, काव्य-शिल्प एवं सिद्धान्त-प्रयोग की विस्तृत चर्चा है।

शोध-प्रबन्ध के अन्तिम एवं षष्ठ अध्याय में साहित्यिक हिन्दी पत्रकारिता की पृष्ठभूमि और वैशिष्ट्य का निरूपण करते हुए साहित्य एवं पत्रकारिता का अन्तःसम्बन्ध प्रस्तुत किया गया है। छायावादयुगीन साहित्यिक पत्रकारिता का परिचय देते हुए सहित्यिक पत्रिकाओं ‘कर्मवीर’, ‘स्वदेश’, ‘स्वार्थ’, ‘श्रीशारदा’, दैनिक ‘आज’, ‘चाँद’, ‘माधुरी’, ‘समन्वय’, ‘मतवाला’, ‘सुधा’, ‘विशाल भारत’, ‘मधुकर’, ‘हंस’ आदि का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया गया है। पंत के पत्रों एवं सम्पादन के माध्यम से पंत के सम्पादक व्यक्तित्व का निरूपण किया गया है। ‘रूपाभ’ के ऐतिहासिक महत्व को भी प्रतिपादित किया गया है। इसी अध्याय में पंत के पत्र-साहित्य के वर्ण्य-विषय, व्यक्तित्व का प्रकाशन, मानवतावादी चेतना एवं भाषा-शैली का विवेचन भी प्रस्तुत किया गया है।

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