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Jatak Deepak (जातक दीपक)

552.00

Author Pt. Shri Bala Mukunda Tripathi
Publisher Chaukhamba Krishnadas Academy
Language Hindi
Edition 2012
ISBN 97-88121803236
Pages 554
Cover Hard Cover
Size 14 x 2 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code CSP0354
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Description

जातक दीपक (Jatak Deepak) इस शास्त्र द्वारा, कृषि-व्यापार-उद्योग-आचार-धर्म-गति आदि के लिए, जो ‘योग्य- काच’ का निर्णय किया जाता है। वह, सूर्य-चन्द्र द्वारा सम्पादित होता है। जिसे बताने के लिए ग्रन्थ और पंचांग, एक मात्र साधन हैं। गणित द्वारा पंचांग-निर्माण तथा ग्रन्थ द्वारा, उसका उपयोग (फलित-निर्माण), बताया जा सकता है। यही कारण है कि, आज इस रूप में, आपके समक्ष आने का। हाँ तो, योग्य-काल जानने के पूर्व, काल-मान की परिभाषा जानना आवश्यक है। काल-सान के विभिन्न अङ्ग होते हैं। ‘कय किस अङ्ग का, किस कार्य में उपयोग हुआ है, होता है, होना चाहिए। इसका निर्णय, इस शास्त्र द्वारा लिखने के लिए इन पंक्तियों में, बैठ गया है। जो भी काल-मान हैं। उनमें इतिहास (पुराण) बर्णित ‘युग’ शब्द, विवादास्पद तो नहीं; किन्तु, भ्रसात्मक अवश्य है। विचार करेंगे पाठक कि, किस ग्रन्थ में, किस विषय का ‘आत्म-निवेदन’ है। फजित का ग्रन्थ, उसमें युग की मीमांसा, आश्चर्य? किन्तु नहीं। इस युग-मान के विचार-मध्यन्तर में, प्रकृत मन्थाध्यायियों को, कई उपयोगी विषय, प्रकाश में आयेंगे। जिनका विवेचन, अभी तक नहीं किया गया । यह तो, व्योतिष-ग्रन्थ है। इसमें सभी शास्त्रों की सहायता लेनी पड़ती है। मुख्यतया, इस क्षेत्र वाले प्रन्थों के साथ, बेद, व्याकरण, तर्क, गणित, पुराण, इतिहास, भूगोल, खगोल, अध्यात्म, दैशिक साधारण ज्ञान, प्राणी- परिचय, साहित्य, प्रचीन-अर्वाचीन भाषा-भाय-ज्ञान, क्रमिक पद्धति, परिभाषान्तर, कालान्तर, निमित्त-निदान, आयुर्वेद आदि, अनेक व्यवहार योग्य क्षेत्र की आवश्यकता पड़ती है। इन सों के द्वारा, कभी नयी खोज हो जाती है; जिसे, जनता के समक्ष रखना पड़ता है।

यही कारण है कि, सर्व प्रथम ‘युग’ शब्द का उपयोग करना पड़ा। अस्तु । विकाश अर्थों में, ज्योतिष आदि ग्रन्थ, सूर्य-सिद्धान्त है। उसमें जो, लम्बा लम्बा युगमान दिद्या गया है। वह युग-मान, कहाँ उपयोगी है, कहाँ नहीं; पुराणों के बड़ी-बड़ी संख्या वाले मान क्या हैं?- आदि को, एक संक्षेप-सूत्र से बताना चाहते हैं, सर्व प्रथम एक सिद्ध बात है कि, सूर्य-सिद्धान्त के, उन लम्बे मान बाले युग-अहर्गण द्वारा, संसार में कोई पंचांग नहीं निकलता। पाठक, भ्रम में न रहें। क्योंकि, उन युगमानों का उपयोग न करने के लिए, स्त्रयं, सूर्य सिद्धान्तकार ने, निषेध किया है। इसलिए नहीं कि, वे अशुद्ध हैं। वरन् इसलिए कि “किं वृथा पर्वतलंघनेन।” कार्योपयोगी युगमान, दूसरे ही हैं। वे भी, कार्य-क्षेत्र-कारण से, भिन्न- भिन्न हैं। गीता-प्रेस के नारदपुराण-अनुबादक ने सूर्य-सिद्धान्त के कथनानुसार, उन लम्बे युगमानों से; उदाहरण नहीं दिखाया। फिर भी, उसी अनुपयोगी युगमान का ध्यान, कुछ लोगों को बना ही रहता है। जब तक, आध्यात्मिक अर्थों में, पुराण देखे जाते हैं; तब तक, किसी प्रकार की अव्यवस्था नहीं होती। किन्तु, जब ऐतिहासिक दृष्टि से देखे जाते हैं, तब, सम्भाव्य उपयोगी अर्थों में, ध्यान देना पड़ता है। ध्यान रहे कि, कुछ साहित्य वर्णनात्मक रहता है, उपयोगात्मक नहीं। किन्तु यदि, किसी वस्तु को, उपयोगात्मक बना दी जाय तो, जहाँ तक मेरी समझ है, अच्छी बात रहेगी। इस प्रकार की कई धाराओं को उपयोगी एवं उनके भ्रम-निवारण, इस क्षेत्र से सम्बन्धित, अनेक विषयों पर, अनेक स्थलों में, इस ग्रन्थ में लिखा गया है। जो वहाँ नहीं लिख सके, उसे संक्षेप में, यहाँ बता देना चाहते हैं।

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