Shakti Tattva Evam Shakta Shadhana (शक्तितत्व एवं शाक्तसाधना)
₹720.00
Author | Dr. Shyamakant Dwivedi ‘Anand’ |
Publisher | Chaukhamba Surbharati Prakashan |
Language | Sanskrit & Hindi |
Edition | 2015 |
ISBN | 978-9383721993 |
Pages | 704 |
Cover | Hard Cover |
Size | 14 x 2 x 22 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | CSP0848 |
Other | Dispatched in 3 days |
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शक्तितत्व एवं शाक्तसाधना (Shakti Tattva Evam Shakta Shadhana) शक्तितत्त्व-तान्त्रिकों के द्वयात्मक अद्वैतवाद में दो चिरन्तन मूल तत्त्व माने जाते हैं-शक्ति और शिव (शक्तिमान)। चूँकि वे दो होकर भी एक हैं, भिन्न-भिन्न होकर भी अभिन्न हैं और द्वैतरूप में दृश्यमान होकर भी अद्वैत हैं; अत: इन दोनों में द्वैतभाव दृष्टिगोचर होते हुए भी तत्त्वतः अद्वैत ही है। शङ्कराचार्य के केवलाद्वैतवाद एवं अद्वैतवादी शैव-शाक्त दर्शन की अद्वैत दृष्टि में मुख्य भेद यही है।
शक्ति और शिव का अभिन्नत्व – शक्ति और शिव एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
शक्ति शिव का ही रूपान्तर है; अतः उसे शिव से भिन्न कैसे कहा जा सकता है ? यदि शक्ति शिव से भिन्त्र (स्वतन्त्र पदार्थ) होती तो अद्वैतवाद होता कैसे ? तान्त्रिक भी तो अद्वैतवाद मानते हैं और उनका अद्वैतवाद द्वयात्मक अद्वैत- वाद है। तान्त्रिकों का कथन है कि जब परब्रह्म शब्दब्रह्म एवं अर्थ के रूप में परिणत होते हैं तब उनका यह परिणमन (परिणाम) ही शिव और शक्ति कहा जाता है। शिव-पुराण की वायवीय संहिता में कहा गया है कि भगवान् शिव की शक्ति समस्त शब्दों का एवं स्वयं इन्दुशेखर समस्त अर्थों का स्वरूप धारण करते हैं-
शब्दजातमशेषं धत्ते शर्वस्य वल्लभा।
अर्थस्वरूपमखिलं धत्ते मुग्धेन्दुशेखरः ॥
शब्द और अर्थ तो अभिन्न हैं; अतः शक्ति और शिव भी अभिन्न हैं।
कविकुलगुरु कालिदास ने भी पार्वती और परमेश्वर को शब्द और अर्थ के समान अभिन्न एवं परस्परानुस्यूत माना है। अर्द्धनारीनटेश्वर का स्वरूप भी इसी द्वयात्मक अद्वैतवाद की पुष्टि करता है। प्रकाश (शिव) और विमर्श (शक्ति) की भी स्थिति यामलभाव में ही रहती है। समावेशावस्था में या निष्पन्द स्त्यानावस्था में शिव और शक्ति एक चने में दो दाल की भाँति दो होकर भी एक के रूप में विद्यमान रहते हैं। भगवान् का अर्धनारीश्वर रूप में स्थित यामलभाव दो में एक या द्वैत में अद्वैत को ही तो सूचित करता है।
एक ही सदाशिव यदि गुरु-शिष्य के रूप में (वक्ता एवं श्रोता के रूप में) परिणत होकर प्रश्न और प्रतिवचन के रूप में तन्त्रों की अवतारणा करते हैं तो इस भासित द्वैत में द्वैत कहाँ है ? यहाँ अद्वैत ही द्वैत बनकर उपस्थित होता है। इसीलिए महास्वच्छन्दतन्त्र में कहा गया है कि-
गुरुशिष्यपदे स्थित्वा स्वयं देवः सदाशिवः ।
प्रश्नोत्तरपरैर्वाक्यैस्तन्त्रं समवतारयत् ॥
अहं और शक्ति– अकार प्रकाशस्वरूप शिवतत्त्व है और हकार विमर्श- स्वरूप शक्तितत्त्व। इन दोनों में ही (शिवशक्त्यात्मक रूप या प्रकाशविमर्शात्मक स्वरूप में या ‘अहं’ में ‘अ’ और ‘ह’ में) समस्त विश्व एवं निखिल वाक्तत्त्व स्थित है और इन्हीं दोनों में समस्त सत्ताओं का उन्मीलन-निमीलन हुआ करता है। ‘अ’ से ‘ह’ पर्यन्त सम्पूर्ण वर्णमाला शिव और शक्ति का ही स्फार है- स्वरूपान्तर है- अभिव्यक्तिकरण है।
समस्त चैतन्य का चिच्छक्तित्व –
चिच्छक्तिः परमेश्वरस्य विमला चैतन्यमेवोच्यते ।
– संक्षेपशारीरक
शब्द और अर्थ भी शिव-शक्ति ही हैं।
शक्ति का स्वरूप क्या है ? शक्ति का पूर्ण स्वरूप अनिर्वाच्य है। उसे कोई तप, कोई तम, कोई जड़, कोई अज्ञान, कोई माया, कोई प्रधान, कोई प्रकृति, कोई शक्ति, कोई अजा एवं कोई (शैव) विमर्श कहते हैं और कोई अविद्या कहते हैं-
केचित्तां तप इत्याहुस्तमः केचिज्जडां परेऽ-
ज्ञानं, मायां, प्रधानञ्च, प्रकृतिं शक्तिमप्यजाम्।
विमर्श इति तां प्राहुः शैवशास्त्रविशारदाः
अविद्यामितरे प्राहुर्वेदत्तत्त्वार्थचिन्तकाः ॥
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