Abhigyan Shakuntalam (अभिज्ञानशाकुन्तलम् चतुर्थः अंकः)
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Author | Dr. Acharya Dhurandhar Panday |
Publisher | Bharatiya Vidya Sansthan |
Language | Hindi & Sanskrit |
Edition | 2021 |
ISBN | - |
Pages | 93 |
Cover | Paper Back |
Size | 14 x 4 x 22 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | BVS0234 |
Other | Dispatched in 3 days |
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अभिज्ञानशाकुन्तलम् चतुर्थः अंकः (Abhigyan Shakuntalam)
नाट्यं भिन्नरुचेर्जनस्य बहुधाप्येकं समाराधकम्आ
चार्य भरत नाट्यशास्त्र में लिखते हैं कि कोई ज्ञान, शिल्प, विद्या, कला, योग अथवा कोई कार्य ऐसा नहीं है, जो नाट्य में न हो-
न तज्ज्ञानं न तच्छिल्पं न सा विद्या न सा कला। नासौ योगो न तत्कर्म नाट्येऽस्मिन् यन्न दृश्यते।
काव्य में वर्णित धीरोदात्त आदि अवस्थाओं का अनुकरण ही ‘नाट्य’ कहलाता है। दृश्य होने के कारण यह नाट्य ही रूप कहलाता है। नट आदि में तत्तत् पात्रों का आरोप होने के कारण इसे रूपक कहते हैं-
अवस्थानुकृतिर्नाट्यम्। रूपं दृश्यतयोच्यते। रूपकं तत्समारोपात्।
नाट्याचार्य भरत ने नाट्यशास्व की उत्पत्ति के विषय में इस प्रकार नाट्यशास्त्र में लिखा है- सम्पूर्ण देवताओं ने एक बार ब्रह्मा से प्रार्थना की कि हमें मनोरंजन की ऐसी वस्तु दीजिए, जो दृश्य और श्रव्य दोनों गुणों से युक्त हो। जिसे समाज के सभी वर्ग देख एवं सुन सकें। उनकी इस प्रार्थना पर ब्रह्माजी ने चारो वेदों का सारभाग ग्रहण करके पाँचवें वेद की सृष्टि की। जिसमें ऋग्वेद से पाठ्य, सामवेद से गीत, यजुर्वेद से अभिनय तथा अथर्ववेद से रसतत्त्व का ग्रहण किया-
एवं संकल्प्य भगवान् सर्ववेदाननुस्मरन्। नाट्यवेदं ततश्चक्ने चतुर्वेदांगसम्भवम्॥
जग्राह पाठमृग्वेदात् सामभ्यो गीतमेव च। यजुर्वेदादभिनयान् रसानाथर्वणादपि ॥
भरतमुनि की इस उक्ति के अनुसार नाटक के चारो तत्त्वों- संवाद, गीत, अभिनय, रस-ये सभी चारो वेदों से गृहीत किये गये। ऋग्वेद में यम-यमी सूक्त, पुरूरवा-उर्वशी संवाद, सरमा-पणि संवाद, इन्द्र-मरुत् संवाद, विश्वामित्र-नदी संवाद, इन्द्र-इन्द्राणी-वृषाकपि संवाद, अगस्त्य-लोपामुद्रा संवाद आदि संवादसूक्त प्राप्त होते हैं, जिनमें नाटकोपयोगी संवादतत्त्व उत्कृष्ट रूप में मिलता है। इन्द्र, अग्नि, उषस्, मरुत् आदि देवताओं के स्तुतिपरक सूक्तों में भी नाट्यतत्त्व की प्रचुरता मिलती है।
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