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Siva Stotravali (शिवस्तोत्रावली)

150.00

Author Sarvadarsanacarya Sri Krishnananda Sagar
Publisher Acharya Krishnanand Sagar
Language Sanskrit & Hindi Translation
Edition 1st edition,1985
ISBN -
Pages 208
Cover Paper Back
Size 21 x 1 x 13 (l x w x h)
Weight
Item Code IM0066
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Description

शिवस्तोत्रावली (Siva Stotravali) श्री उत्पलदेव द्वारा प्रणीत यह ‘शिवस्तोत्रावली’ संस्कृत साहित्य की एक अद्वितीय कृति है। इस ग्रंथ में भगवान् परमशिव की दिव्यस्तुति की गयी है। शिवाद्वैतशास्त्र के मौलिक सिद्धान्त के आधार पर उच्चकोटि को समावेशात्मक शिवभक्ति की पूर्णतया अभिव्यक्ति होती है। ये अपने जीवन काल में हो भक्ति की पराकाष्टा के कारण समावेश भूमिका के उच्चतम शिखर पर पहुँच गये थे और इसी समय प्रस्तुत शिवसम्बन्धी स्तोत्रों की रचना हुई है, इन्हों अन्य ग्रन्थों के सदृश इस ग्रंथ को नहीं लिखा है, अपितु एक समाहित दशा के आनन्द अतिरेक दशा में इसका लेखन-कार्य किया है, मौखिक कविता के रूप में श्लोकों को कहते जाते थे और उनके शिष्य लिखने जाते थे, अनन्तर आदित्यराज ने इन श्लोकों को क्रमबद्ध कर विभिन्न स्तोत्रों का रूप दिया, साथ हो आचार्य विश्वावर्त ने सारे पद्यों को बोस पृवक्-पृयक् स्तोत्रों में विभक्त किया और विषय दृष्टि से प्रत्येक स्तोत्र का नामकरण संस्कार किया। श्रो राजानक क्षेनराज ने इसी ‘शिवस्तोत्रावली’ की वृत्ति में उक्त बातों का संकेत किया है।

इस में ग्रन्थकार ने प्रकरणरूप से लौकिक स्तोत्रों के रूप में शिवसमावेशनयो विमलभक्ति और उससे उपलब्ध परमानन्द का सजोव एवं भावोत्पादक चित्रण किया है। ‘भवभूति’ के शिखरणो पदों के समान, मयूरी की भांति हमारे समक्ष सांगोपात्र रूप धारण कर नाच उठती है और हमें आनन्द सागर में आप्लावित कर देतो है। यद्यपि सारे स्तोत्रों में शिव के गुणानुवाद है किन्तु प्रत्येक स्तोत्र में वर्णन की शैली विलक्षण है और एक से दूसरे में नवीनता देखने में आती है तथा सभी स्तोत्र एक दूसरे से भिन्न-भिन भी प्रतीत होते हैं। इस प्रकार अपनी विलक्षण प्रतिमा से स्तोत्रकार ने एकता में अनेकता और अनेकता में एकता प्रदर्शित की  है। इसमें कोई-कोई पद्य तो अत्यन्त कठिन भाषा में लिखा है जो वाणभट्ट की शैली का परिचारक देता है और कोई तो अत्यन्त सरल भाषा में है।

शैवदर्शन में उत्पलदेव का नाम प्रसिद्ध है शैवसिद्धान्त के ‘ईश्वरप्रत्यभिज्ञा’ जैसे अनेकानेक विद्वतापूर्ण ग्रंथो का इन्होंने उच्चकोटि में लेखन कार्य कर शैवागमशास्त्र को एक नूतन स्वरूप दिया है। ये श्रीसोमानन्दपाद के शिष्य थे, इनके पिता का नाम उदयाकर और पुत्र का नाम विभ्रमाकर था, इसका जीवनकाल नवमीशताब्दो के उत्तरार्थ में माना जाता है।

श्री राजानक क्षेमराज द्वारा प्रणीत प्रस्तुत ग्रंथ पर विवृत्ति पद्यों के रहस्य को अत्यधिक प्रकट करती है। ये कश्मीर शैवदर्शन के प्रसिद्ध श्रीमदभिनवगुप्तपादाचार्य के शिष्य थे। इन्होंने भी शैवाचायों की भाँति शैवाद्वैत दर्शन की अनुपम सेवा की है। अनेक ग्रन्थों पर व्याख्याएँ लिखी हैं। इनकी रचनाओं से अगाध पाण्डित्य तथा विलक्षण प्रतिभा झलकती है।

प्रस्तुत ग्रन्थरत्न शिवभक्तों के समक्ष रखते हुए हम अत्यन्त हर्ष का अनुभव कर रहे हैं। परमशिव की हम लोगों को चित्समावेशरूपिणी विमलभक्ति प्राप्त हो ऐसी हम सदैव भगवान् परमशिव से प्रार्थना करते हैं।

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