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Mayamatam Set of 2 Vols. (मयमतम 2 भागो में)

850.00

Author Dr. Shri Krishna 'Juganu'
Publisher Chaukhamba Sanskrit Series Office
Language Sanskrit & Hindi
Edition 2019
ISBN 978-81-7080-259-8
Pages 934
Cover Hard Cover
Size 14 x 4 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code CSSO0365
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Description

मयमतम 2 भागो में (Mayamatam Set of 2 Vols.) भारतीय वास्तुविद्या के आधारभूत ग्रन्थों में मय कृत शास्त्र का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। मानव जीवनोपयोगी वास्तु और उससे सम्बद्ध रचनाओं के निर्माण, उनके निरापद व्यवहार, शुभ परिणाम को लेकर मय ने जिन सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया, वे उसके मत के रूप में जाने जाते हैं। मत का महत्व आज भी सर्वविदित है। किसी विषय पर अपने निजी विचार ‘मत’ कहे जाते हैं। कोशकारों की सम्मति से मत शब्द ‘मन् + क्त’ से बना है जिसका अर्थ है- चिन्तित, विश्वसित, कल्पित, सोचा हुआ, माना हुआ ख्याल किया हुआ, समझा हुआ, मूल्यवान, माना हुआ, सम्मानित, प्रतिष्ठित – रघुवंश (2, 16; 8, 8) प्रशंसित, मूल्यवान्, अटकल लगाया हुआ, अनुमान लगाया हुआ, मनन किया हुआ, चिन्तन किया हुआ, प्रत्यक्ष किया गया, महचाना गया, सोचा गया, अभिप्रेत उद्दिष्ट, अनुमोदित, स्वीकृत।’

इस प्रकार मय ने अपने चिन्तन, मनन से जो विचार दिया, वह ‘मयमत’ है। प्रस्तुत ग्रन्थ में मय के विचारों का संग्रह है- नामाभिधान से यह सहज ही कहा जा सकता है किन्तु वर्तमान पाठ को देखते हुए ऐसा नहीं लगता है क्योंकि इसमें कई जगह अन्य मतों का सन्दर्भ भी है और कई स्थलों पर तो अन्य मतों को उद्धृत भी किया गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि पूर्वकाल में स्वतन्त्र रूप से मय का कोई ग्रन्थ था जिसके संक्षिप्त होने से अन्य मत उसमें जुड़ गए अथवा वह लुप्त हो गया और उसकी श्रुत परम्पराधारित उक्तियों का सम्पादन करते हुए अन्य मतों को सम्बद्ध किया गया। यह ग्रन्थ मय के सिद्धान्तों के साथ ही अन्यान्य एतद्विषयक मतों का संग्रह भी है।

ऐसे पूर्व ग्रन्थों में ग्रन्थकार स्वयंभुवमत, पितामहमत अथवा हिरण्यगर्भमत, अगस्त्यमत, पिङ्गलमत के साथ ही आगमों और तन्त्रशास्त्रों का उल्लेख करता है। केचित्, पूर्वसूरिभिः, पुराणैः, पूर्वाचार्य प्रोक्तं जैसी कई उक्तियाँ इस ग्रन्थ में विद्यमान है जो जहाँ इस परम्परा के प्रवाह को प्रदर्शित करती हैं वहीं इस ग्रन्थ को मय सहित अन्य मतों के सङ्कलन के स्वरूप को भी सिद्ध करती है। यह ग्रन्थ 9वीं-10वीं सदी तक (किञ्चित् अध्यायों के स्वरूप को छोड़कर) वर्तमान रूप में आ चुका था। इसलिए परवर्ती ईशानशिवगुरुदेवपद्धति जैसे निबन्ध ग्रन्थ में इसके मतों को प्रमाणतः उद्धृत किया गया। तेरहवीं सदी में चालुक्य सोमेश्वर ने मानसोल्लास और 14वीं-15वीं सदी में सूत्रधार क्षेतार्क और सूत्रधार मण्डन ने इसके मतों को सादर उद्धृत किया।

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