Purush Suktam (पुरुषसूक्तम्)
₹20.00
Author | Ramashankar Mishra |
Publisher | Chaukhamba Surbharti Prakashan |
Language | Sanskrit & Hindi |
Edition | 1993 |
ISBN | - |
Pages | 16 |
Cover | Paper Back |
Size | 14 x 2 x 22 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | CSP0690 |
Other | Dispatched in 3 days |
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पुरुषसूक्तम् (Purush Suktam) यह सर्वविदित है कि भारतीय संस्कृति का पर्यायभूत वेद निखिल ज्ञान- राशि का भण्डार है। इसके विषय में महर्षि व्यास का ‘यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत्क्वचित्’ यह कथन पूर्णरूपेण चरितार्थ होता है। वेदों में निहित ज्ञान का महत्त्व सार्वभौमिक तथा सार्वजनीन है। इसमें विराट् पुरुष का वर्णन यत्र-तत्र विपुलता से प्राप्त होता है। पुरुष शब्द का अर्थ ‘पुरि शेते’ इस विग्रह-वाक्य के अनुसार तथा ‘पुर् + शी + कः’ इस व्युत्पत्ति से प्राण अथवा शरीर में अवस्थित आत्मा अथवा भौतिक जगत् में व्याप्त प्राणतत्त्व गृहीत होता है। उव्वट के अनुसार पुरुष शब्द का अर्थ, नारायण अभिधानवाला पुरुष होता है। सर्वजनसंवेद्य पुरुष को जानकर ही जगत् के प्राणी मुक्त होते हैं। यथा-
‘ततः परं ब्रह्म परं बृहन्तं यथा निकायं सर्वभूतेषु गूढम्।
विश्वस्यैकं परिवेष्टितामीशं तं ज्ञात्वामृता भवन्ति।।’ (श्वेताश्व ० ३।७)
वह विराट् पुरुष संसार में दृश्यमान सब मुख, सिर और गर्दनों वाला है। सभी स्थावर और जङ्गम पदार्थों की बुद्धि अथवा हृदय में वह निवास करता है। वह सर्वव्यापी तथा सभी धर्म, ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य, यश और श्री का समष्टि रूप है। अतः वह सर्वत्र विद्यमान और मङ्गलमय है। यथा-
‘सर्वाननशिरोग्रीवः सर्वभूतगुहाशयः।
सर्वव्यापी स भगवान् तस्मात् सर्वगतः शिवः॥’
अन्यच्च-
‘सर्वतः पाणिपादं तत् सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम्।
सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति।।’ (श्वेताश्व० ३।११,१६)
उस ब्रह्म में अशेष इन्द्रियों द्वारा अधिगत विषयज्ञान विद्यमान रहता है। किन्तु वह स्वयं इन्द्रियरहित होता है। वह अनन्त ब्रह्म सबका स्वामी और नियन्ता होते हुए निखिल जन का शरण है। यथा-
‘सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविजितम्।
सर्वस्य प्रभुमीशानं सर्वस्य शरणं बृहत्।।’
अन्यच्च-
‘अपाणिपादो जवनो ग्रहीता पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्णः।
स वेत्ति वेद्यं न च तस्यास्ति वेत्ता तमाहुरग्रचं पुरुषं महान्तम्।।’ (श्वेताश्व० ३।१७,१९)
एवं विध महिमामण्डित परमपुरुष का यत्किञ्चित् निदर्शन ऋग्वेदोक्त पुरुषसूक्त में हमें प्राप्त होता है। वैदिक वाङ्मय में इस पुरुषसूक्त का अपना एक विशिष्ट स्थान है। इसके वैशिष्ट्य को ध्यान में रखकर सुधीजनों ने छात्रों को वेदविषय तथा परमपुरुष का ज्ञान कराने हेतु इसे यत्र-तत्र परीक्षा-पाठ्यक्रम में निर्धारित किया है। परीक्षाथियों को अल्प व्यय में स्वतन्त्र रूप से इसकी उपलब्धि हो सके, एतदर्थ इसका पृथक् प्रकाशन किया जा रहा है। इस पुस्तक के संरचना-काल में सत्परामर्श देकर डा० भगवतीशरण द्विवेदीजी ने अनुगृहीत किया है, अतएव उनके प्रति आभार प्रकट करते हुए आशा करता हूँ कि सहृदयजन इस लघुकाय ग्रन्थ का समादर कर लाभान्वित होंगे।
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