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Rigvediyam Aitareya Brahman Set of 2 Vols. (ऋग्वेदीयम ऐतरेयब्राह्मणंम २ भागो में)

1,487.00

Author Pro. Umesh Prasad, Dr. Jamuna Pathak
Publisher Chawkhambha Vidya Bhawan
Language Hindi & Sanskrit
Edition 2016
ISBN -
Pages 1602
Cover Paper Back
Size 14 x 2 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code CSSO0597
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Description

ऋग्वेदीयम ऐतरेयब्राह्मणंम २ भागो में (Rigvediyam Aitareya Brahman Set of 2 Vols.) ब्राह्मणसाहित्य-विश्ववाङ्मय में वेद ज्ञानविज्ञान के विशाल भाण्डागार है। इनमें ऐहिक और पारलौकिक-दोनों प्रकार के ज्ञान समुपलब्ध होते हैं। संहिता और ब्राह्मण- दोनों का समाहार वेद के अन्तर्गत किया गया है। जैसा कि आपस्तम्ब ने कहा है- ‘मन्वब्राह्मणयोर्वेदनामधेयम्’ (आप० परि० १.३३)। इस परिभाषा में मन्त्र का तात्पर्य संहिता और ब्राह्मण का ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद् है। ब्राह्मण के अन्तर्गत आरण्यक और उपनिषद् का भी समाहार हो जाता है। मन्त्रों के साथ-साथ ब्राह्मणग्रन्थों को भी वेदान्तर्गत माने जाने में प्राचीन और अर्वाचीन आचार्यों में वैमत्य दृष्टिगोचर होता है। प्राचीन वेदज्ञों ने तो ब्राह्मण ग्रन्थों को भी वेद के अन्तर्गत माना है किन्तु अर्वाचीन वेदश स्वामी दयानन्द सरस्वती का कथन है कि केवल मन्त्रों का संहिताभाग ही वेद है। उनकी स्पष्ट धारणा है कि ब्राह्मण-ग्रन्थों का समाहार वेद के अन्तर्गत नही होना चाहिए; क्योंकि ब्राह्मण-ग्रन्थ मन्त्रों के व्याख्यापरक ग्रन्थ है।

गम्भीरतापूर्वक विचार करने से यह स्पष्ट होता है कि ब्राह्मणग्रन्थों के वेदत्व पर शङ्का करना अव्यावहारिक है, क्योंकि स्वामी जी भी यज्ञकर्म को सम्पादित करने से सहमत है और सभी ब्राह्मण-ग्रन्थों में विविध यज्ञों के विधिविधान और धार्मिक कर्मकाण्डों का सविस्तार विवेचन किया गया है। यज्ञ के वास्तविक स्वरूप को समझने के लिए मन्त्रों के साथ-साथ ब्राह्मण-ग्रन्थों का अवबोध अपरिहार्य है। अत एव प्रारम्भ से ही मन्त्र और ब्राह्मण को वेद के अन्तर्गत समाहरित किया गया है।

ब्राह्मण शब्द का अर्थ-अर्थ को दृष्टि से विचार करने पर ज्ञात होता है कि ब्राह्मण शब्द बृह धातु से निष्पन्न ‘ब्रह्मन्’ शब्द से बना है। ‘ब्रह्मन्’ शब्द प्रार्थना अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। ‘ब्रह्मन्’ (नपुंसक लिङ्ग) शब्द से अण् प्रत्यय होने पर ‘ब्राह्मण’ शब्द व्युत्पन्न होता है। इस प्रकार ब्राह्मण शब्द का अर्थ- ‘ब्रह्मणोऽयमिति ब्राह्मणः’ अर्थात् ब्रह्म से सम्बद्ध ब्राह्मण कहलाता है। अतः ब्रह्म शब्द के रुढ़ तथा प्रचलित विभिन्न अर्थों को दृष्टि में कर विद्वानों ने ब्राह्मण ग्रन्थों के प्रस्तुत नामकरण पर विभिन्न मत प्रतिपादित किया है। डिटनी, वेस्टरगार्ड, मैक्डानल तथा कुछ अन्य यूरोपीय विद्वानों ने ‘प्रार्थना एवं उपासना’ अर्थ के द्योतक ‘ब्रह्मन्’ से ब्राह्मण शब्द की रचना मानी है। नपुंसका- लिङ्ग ‘ब्रह्मन्’ शब्द का अर्थ परमेश्वर है। अतः मैक्डानल ने उपर्युक्त विचार को सहमति प्रदान करते हुए कल्पना की है; क्योंकि इसमें प्रार्थना तथा उपासना के साथ-साथ ब्रह्म (परमेश्वर) सम्बन्धी विचार प्रस्तुत किये गये है। अतः इस ग्रन्थ-राशि को ब्राह्मण संज्ञा दी गयी ।’ ब्रह्म का एक अर्थ ‘वितान’ या ‘परिवृंहण’ है। कतिपय विद्वानों का विचार है कि ब्राह्मणों में चूंकि यज्ञीय क्रियाओं, निर्वचन, पुराकल्प, इतिहास, आख्यानादि विषयों, जिनका मूल वैदिक संहिताओं से है का विस्तार प्राप्त होता है, अत: इन्हें ब्राह्मण कहा गया है। किन्तु स्वयं ब्राह्मण-ग्रन्थों में ब्रह्म के इतर अर्थ भी मिलते हैं। शतपथब्राह्मण में ‘ब्रह्म’ का अर्थ मन्त्र दिया गया है। मेदिनीकोश ने ब्रह्म के इसी अर्थ को लेकर ब्राह्मण (ग्रन्थवाचक) शब्द का अर्थ स्पष्ट किया है- ‘ब्रह्मणि नाम मन्त्रा संहयन्ते स्पष्टीक्रियन्ते व्याख्यायन्ते यस्मिन् तादृश वेदभाग ब्राह्मण इत्यर्थः।

ऐतरेयब्राह्मण के अनुसार ब्रह्म का अर्थ यज्ञ है। इस प्रकार ब्रह्म शब्द मुख्य रूप से स्तुति का वाचक होने के कारण मन्त्री के लिए प्रयुक्त होता था; क्योंकि स्तुतियाँ मन्त्रात्मक ही है। इन्ही मन्त्रात्मक ‘ब्रह्मन्’ का यज्ञ के विविध कमों में विनियोग होता है, अतः वेद का वह भाग जिसमें मन्त्रों के विनियोग आदि का उल्लेख हुआ है, वह ब्राह्मण कहलाया। मन्त्रों के विनियोगात्मक वाक्यों को ब्राह्मण कहा जाने का एक कारण यह भी था कि मन्त्रों का यज्ञ में विनियोग होने के कारण यज्ञ को ‘ब्रह्मन्’ कहा गया। इस प्रकार ब्रह्मन् अर्थात् यज्ञ का विधान करने वाले ग्रन्थ को ब्राह्मण कहा जाने लगा। भट्टभास्कर ने तैत्तिरीयसंहिता के भाष्य में ग्रन्थवाचक ब्राह्मण शब्द का यही अर्थ करते हुए लिखा है कि कर्मकाण्ड और उससे सम्बन्धित मन्त्रों की व्याख्या जिन ग्रन्थों के अन्तर्गत मिलती है उसे ब्राह्मण-ग्रन्थ कहते हैं।

वस्तुतः ब्राह्मण-ग्रन्थों का अध्ययन करने के उपरान्त प्रथमतः यही तथ्य स्पष्ट होता है कि इन अन्यों का प्रमुख विवेच्य विषय यज्ञ है। इनमें याज्ञिक कर्मकाण्ड की सूक्ष्म विवेचना के साथ वैदिक मन्त्रों के द्वारा तत्-तत् अनुष्ठानों की संगति स्थापित करके तथा उनकी व्याख्या करके उन्हें प्रामाणिकता प्रदान की गयी है। यज्ञों का वैज्ञानिक, आधिभौतिक एवं आध्यात्मिक विवेचन तथा वेद मन्त्रों की व्याख्या-इन दोनों विषयों का इनमें समावेश होने के कारण ही इनका ‘ब्राह्मण’ नामकरण किया गया, यही कथन अधिक युक्तिसङ्गत प्रतीत होता है।

ब्राह्मण और ब्रह्मवादी-ब्राह्मण ग्रन्थों में मन्त्रों की व्याख्या प्रासङ्गिक रूप में ही हुई है, अत: ‘ब्रह्म’ (मन्त्र) की व्याख्या किये जाने के कारण ये ‘ब्राह्मण’ नाम से अभिहित किये गये-यह कथन एकाङ्गी ही सिद्ध होता है। वस्तुतः यज्ञ से ही ब्रह्म तथा ब्राह्मण (अन्यवाचक) शब्द का निकटतम सम्बन्ध है। ब्राह्मण ग्रन्थों का अन्तः साक्ष्य भी यही प्रमाणित करता है। ब्राह्मणों में यज्ञीय विषयों के मीमांसक विद्वानों को ब्रह्मवादी संज्ञा दो गयी है। ताण्डयब्राह्मण में ‘एवं ब्रह्मवादिनो वदन्ति’ कहकर अनेक यज्ञीय गुत्थियों को सुलझाने का प्रयास किया है।’ शतपथब्राह्मण में ऐसे कई ब्रह्मवादियों का नामोल्लेख भी किया गया है, यथा आषाढ़ सावयस, याज्ञवल्क्य आदि ।” इस प्रकार इन उल्लेखों से स्पष्ट हो जाता है कि यज्ञ की गुत्थियों को सुलझाने वाले मीमांसक ब्रह्मवादी कहे जाते थे तथा जिन गोष्ठियों में ये अपने विचारों को प्रस्तुत करते थे वे गोष्ठियाँ ‘ब्रह्मोद्य’ कही जाती थीं। निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि ब्राह्मण-ग्रन्थों के उक्त नामकरण का सीधा सम्बन्ध ब्रह्मोद्य तथा ब्रह्मवादियों से है, न कि ब्राह्मणजाति से।

उपर्युक्त ब्रह्मोद्य तथा ब्रह्मवादी संज्ञाएँ उस भ्रम का सहज ही निराकरण करने में समर्थ है कि ब्राह्मण ग्रन्थों का सम्बन्ध ब्राह्मणजाति से है। अतः यह कहना उचित होगा कि जिस प्रकार यज्ञ की गुह्यतम गुत्थियों को सुलझाने वाले मीमांसक ब्रह्मवादी कहे जाते थे, उसी प्रकार यज्ञ की गूढ़ मीमांसा से सन्निविष्ट होने के कारण प्रस्तुत ग्रन्थों का नामकरण ब्राह्मण किया गया। निरुक्त में ब्राह्मणों के निर्देश ‘इति विज्ञायते’ भी प्रत्यक्षतः इसी परिभाषा की ओर इङ्गित कर रहा है; क्योंकि दुर्गाचार्य ने इसकी व्याख्या ‘एवं ब्राह्मणे अपि विचार्यमाणे ज्ञायते’ की है। अतः सङ्क्षिप्त रूप में कह सकते हैं कि ब्रह्म के व्याख्यापरक ग्रन्थ ही ब्राह्मण हैं।

ब्राह्मण ग्रन्थ का लक्षण-मन्त्र के समान ही ब्राह्मण शब्द के कई लक्षण किये गये हैं और स्वरूप के विषय में मीमांसाग्रन्थों में पर्याप्त विवेचन किया गया है। आपस्तम्बयज्ञपरिभाषा के अनुसार ‘जो कर्म में प्रवृत्त करें वे ब्राह्मण हैं’ । जैमिनि ने ‘जो मन्त्र नहीं है, वह ब्राह्मण हैं’- ऐसा ब्राह्मण का लक्षण किया है। अर्थात् जो मन्त्र से अवशिष्ट भाग है वह ब्राह्मण है, यही ब्राह्मण का लक्षण है। सायण ने भी इसी लक्षण को स्वीकार किया है।

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