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Yoni Tantram (योनितन्त्रम)

65.00

Author Vinay Kumar Ray
Publisher Prachya Prakashan
Language Sanskrit & Hindi
Edition 1999
ISBN -
Pages 55
Cover Hard Cover
Size 14 x 2 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code RTP0129
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Description

योनितन्त्रम (Yoni Tantram) आगम और तन्त्र दोनों पर्यायवाची पद माने गए हैं। आगम अनादि परम्परा प्राप्त माना गया है। जैसा कि उल्लेख है कि भगवान् शिव ने अपने पाँच मुखों-सद्योजात, वामदेव, अघोर, तत्पुरुष और ईशान द्वारा भगवती पराम्बा पार्वती को तन्त्रों का उपदेश दिया तथा ये तन्त्र श्रीमन्नारायण भगवान वासुदेव को भी मान्य हुए और तदनुसार ही पूर्व, दक्षिण,

आगतं शिव वक्त्रेभ्यो गतं च गिरिजा श्रुतौ।

मतञ्च वासुदेवेन आगम सम्प्रवक्षते ।।

पश्चिम, उत्तर और ऊर्ध्व ये पाँच आम्नाय तन्त्रों में प्रचलित हुए। कलियुग में आगम मार्ग को अपनाए बिना सिद्धि नहीं प्राप्त हो सकती, साथ ही, आगम सार्ववार्णिक है जबकि निगम त्रैवर्णिक। उल्लेख है कि वैदिक आचार सत्ययुग, स्मृत्युपदिष्ट आचार त्रेतायुग, तथा पौराणिक आचार द्वापरयुग तथा आगमोक्त्य आचार कलियुग में मान्य है। जैसा कि कहा गया है-

कलौ श्रुत्युक्त आचारस्त्रेतायां स्मृति सम्भवः।

द्वापरे तु पुराणोक्तं कलावागम सम्भवः।।

यदि शब्द व्युत्पत्ति पर विचार करें तो आगम शब्द ‘आ’ उपसर्गपूर्वक गति अर्थवाले गम् धातु से बनता है। ‘आ’ उपसर्ग का अर्थ चारों तरफ यानी सर्वत्र व्यापक रूप से होता है। तात्पर्य यह हुआ समग्र ब्रह्माण्ड में व्यापकता प्रदान करने वाला या व्यापक गति प्रदान करने वाला ज्ञान ही आगम है। जैसा कि शास्त्रों में आया है निहित रूप से तत्त्व की ओर ले जाने वाला निगम तथा आप्त वचन से आविर्भूत तत्त्वार्थ विशेष का संवेदी आगम होता है। वैसे उल्लेख आता है कि-

आङ् भावस्तु समन्ताच्च गम्यतेत्यागमोमतः।

अर्थात् सर्वतोमुखी अध्यात्मज्ञान जो सर्वतः प्रसृत हो चतुर्दिक व्याप्त हो रहा है वही आगम है। गत्यर्थक धातु ज्ञानार्थक भी होते हैं। यह पिङ्गला सिद्धान्त है। शैवमत के अनुसार आ = पाश, ग = पशु और म = पति है। अथवा आ = शिवज्ञान, ग = मोक्ष और म पति हुआ। यह तन्त्र यानि शास्त्र कहलाता है, क्योंकि इसके द्वारा ही सब कुछ शासित होता है.सुरक्षित होता है, स्थिर होता है। प्राणिमात्र ही रक्षा या ‘त्राण’ करने के कारण भी यह तन्त्र कहलाता है। जिसके द्वारा ज्ञान का विस्तार हो वह शास्त्र तन्त्र कहलाता है-

तन्यते विस्तार्यते ज्ञानमनेनेति तन्त्रम्।

तत्त्व, मन्त्र, देवता, साधनाविधि, फल आदि सभी का वर्णन जिसमें हो तथा जो साधक की रक्षा भी करे वह शास्त्र या विद्या अथवा ज्ञान तन्त्र कहलाता है। यह शब्द विस्तार अर्थवाले तन् धातु से औणादिक ‘ट्रन’ प्रत्यय करने पर बनता है। (सर्वधातुम्यः ष्ट्रन्) । जैसा कि उल्लेख है-

तनोति विपुलानर्थान् तत्त्वमन्त्रसमन्वितान्।

त्राणं च कुरुते यस्मात् तन्त्रमित्यभिधीयते ।।

तन्त्रों के अनेक भेद हैं। मुख्यतः ६४ माने गये हैं। उनमें भी शैव, शाक्त फिर वैष्णव, बौद्ध और जैन भेद से बहुसंख्यक हो जाते हैं। माना यह गया है कि सभी का आविष्कार भगवान् शिव के द्वारा ही हुआ है। जैसा कि उल्लेख है-

बौद्धोक्तमुपतन्त्राणि कापिलोक्तानि यानि च।

गुरुशिष्यपदे स्थित्वा स्वयं देवः सदाशिवः।

प्रश्नोत्तरपरैर्वाक्यैस्तन्त्रं समवतारयत् ।।

कहा जाता है कि ईस्वी सन् की प्रारम्भिक शती में शरहा नामक बौद्ध भिक्षु ने सिद्ध परम्परा के आचायर्यों से कौलाचार परम्परा की शिक्षा प्राप्त कर उन उपासना पद्धतियों को बौद्ध श्रमणों में प्रचार किया और उसकी वज्रयान शाखा को पल्लवित पुष्पित किया। इसी शरहा की परम्परा में गुरु पद्मसम्भव हुए, वे परम सिद्ध थे। अनेक प्रकार की व्यावहारिक सिद्धियाँ उन्हें प्राप्त थीं। तिब्बत के धर्म गुरुओं को परास्त कर वहाँ सिद्ध साधना की तान्त्रिक पद्धतियों को प्रचलित किया। आगे चलकर वही लामा धर्म हो गया। परन्तु वज्रयानियों ने तथा वैष्णवों ने भी सिद्ध परम्परा के परमशुद्ध रूप को यथावत् रूप मे स्थिर न रखकर शैनः शैनः उसके विकृत रूप को ही प्रस्तुत करते हुए ग्रन्थों की रचना की। सिद्ध परम्परा में कतिपय साधना पद्धतियों रहस्यमयी हैं जिन्हें प्रकट करना निषिद्ध माना गया क्योंकि उसके रहस्य को समझने में असमर्थता के कारण साधारण साधक पथभ्रष्ट हो सकते हैं। परन्तु वज्रयानियों द्वारा चीनाचार के ग्रन्थों में उन अप्रकटनीय रहस्यमयी साधनाओं का स्पष्ट वर्णन कालान्तर में होने लगा और उनकी तुलना में शाक्त सम्प्रदाय के साधक आचार्य भी वही करने लगे। फलस्वरूप पञ्च मकार साधना या वामाचार का प्रचलन हुआ। यद्यपि वर्तमान में दक्षिण मार्ग या दक्षिणाचार साधना पद्धति को पञ्च मकार रहित शुद्धविद्या-साधना के रूप में समझा जाता है। किन्तु आचार्य अभिनव गुप्त ने ‘दक्षिणं रौद्रकर्माद्यम्’ कहकर कापालिक पाशुपत साधकों के आचार श्मशान, चिताभस्मालेप, कपालधारण तथा मारण, मोहन, वशीकरण, उच्चाटन आदि घोर षट्कर्म साधना की ओर संकेत किया है।

वाम का अर्थ विपरीत होता है। प्रायः यही अर्थ सबलोग लेते हैं, किन्तु वस्तुतः वाम का अर्थ सुन्दर मनोरम या हृद्य मन से अच्छा लगने वाला होता है। मांस, मत्स्य, मद्य, मुद्रा और मैथुन-ये पञ्च मकार सभी के मन को प्रायः अच्छे लगते हैं। आचार्य अभिनवगुप्त के अनुसार वामाचार से व्यावहारिक सिद्धियाँ अत्यधिक मात्रामें प्राप्त होती हैं। “”वाम सिद्धिसमाकुलम् । फलस्वरूप साधक उसी में लिप्त हो जाता है और आध्यात्मिक मार्ग से भटक जाता है तथा अन्त में उन भौतिक सिद्धियों के उपयोग और उपभोग से पथभ्रष्ट होकर पतित हो जाता है। भैरवागम के अनुसार दक्षिणाचार से वाम उत्तम तथा वाम से सिद्धान्त मार्ग उत्तम तथा सिद्धान्त से भी कौल मार्ग उत्तम है। परन्तु तन्त्रों की अनेकरूपता के कारण श्रेष्ठ गुरु के द्वारा उपदिष्ट मार्ग का ही आचरण करना चाहिए।

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