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Gautamiya Tantram (गौतमीयतन्त्रम्)

336.00

Author Pt. Shri Bhagirath Jha & S.N. Khaelwal
Publisher Chaukhambha Krishnadas Academy
Language Sanskrit & Hindi
Edition 2014
ISBN 978-81-7080-441-3
Pages 278
Cover Hard Cover
Size 14 x 4 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code CSSO0686
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Description

गौतमीयतन्त्रम् (Gautamiya Tantram) गौतमीय तन्त्र में श्रीकृष्ण की तुष्टि हेतु जिस साधना का वर्णन है, उसके क्रियाकाण्ड को सम्यकतः समझने के लिये आगमतत्व विलास ग्रंथ तथा मन्त्र महोदधि का अवलोकन करना आवश्यक है। गौतमीय तंत्र में जिस विधान को संक्षिप्त रूप से कहा गया है, उसका स्पष्ट तथा विस्तृत रूप इन ग्रंथों में वहाँ मिलेगा जहाँ गोपाल मन्त्र साधना तथा श्रीकृष्ण मन्त्र साधना सम्बन्धित रहस्य का प्राकट्य यथार्थ रूप से किया गया है। श्रीकृष्ण का एक रूप अक्षर ब्रह्म में, द्वितीय रूप उनके आविर्भाव काल में वृन्दावन आदि तीर्थों में अवताररूपेण प्रकट होता है। द्वितीय रूप सामयिक है। अक्षर ब्रह्म में नित्य लीलारत श्रीकृष्ण का रूप कालातीत है।

अवतारजनित रूप कालान्तर्गत है। देश-काल के अनुसार वह प्रकट होता है। तृतीय रूप भक्तों के हृदय क्षेत्र में प्रकटित होता है। जिसका जैसा भाव है, तदनुरूप उसके हृदय पटल पर श्रीकृष्ण के उस रूप का प्रस्फुटन होता है। यह प्राकट्य काल के अधीन होकर भी कालातीत है। देश-काल में होकर भी दिक् तथा काल के नियमों से परिच्छिन्न नहीं है। वैष्णव तन्त्रानुष्ठान से भक्त के हृदय पटल पर ही वह अन्तर्लीला प्रकट होती है तथा कृष्ण का अनन्त रूप वहाँ प्रतिच्छवित होने लगता है।

वैष्णवतन्त्र मतानुसार मन्त्र जप से भाव का आविर्भाव होता है। जप द्वारा मनमुकुर की मलीनता घुल जाती है। यह शुद्धि ही भाव शुद्धि अथवा भूत शुद्धि का ही एक रूप है। मन्त्राग्नि के प्रज्ज्वलित होने के कारण चित्तरूपी दर्पण पर लगी मलिनता दग्ध हो जाती है। इस मलिनता के रहते भावोद्रेक हो ही नहीं सकता। अतः भगव‌द्भाव के उन्मेष के लिये नाम जप (मन्त्र जप) प्रधान उपाय कहा गया है। यह जप कैसे निष्पादित होगा? यह प्राण, मनः तथा वाक् के संयुत यत्न से निष्पादित होता है। इसमें प्राण-मन-वाक् का उपादान (Substantive assemblage) ठीक होना चाहिये। इसमें जापक तथा गुरुमन्त्रादि की शक्ति निमित्त रूप है। जप कर्म के पाँच हेतु हैं, अधिष्ठान, कर्ता, करण, चेष्टा तथा दैव। इसमें से कर्त्ता-करण तथा चेष्टा का साक्षात् प्राधान्य रहता है। अधिष्ठान तथा दैव असाक्षात् प्राधान्य है। जपकर्म की सफलता के यह सब सहायक रूप है।

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