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Pragyan Tatha Kram Path (प्रज्ञान तथा क्रम पथ)

76.50

Author Gopinath Kaviraj
Publisher Vishvidyalaya Prakashan
Language Hindi
Edition 2013
ISBN 978-81-7124-971-8
Pages 119
Cover Paper Back
Size 14 x 2 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code VVP0122
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Description

प्रज्ञान तथा क्रम पथ (Pragyan Tatha Kram Path) महामनीषी महा महोपाध्याय डॉ० गोपीनाथ कविराज जी के इतःस्ततः बिखरे प्रबंधो का जो समसामयिक पत्रिकाओं में बंगभाषा में छपे थे, भाषानुवाद ‘प्रज्ञान तथा क्रमपथ’ की संज्ञा से अभिहित होकर अपना आत्मप्रकाश कर रहा है। प्रातिभ ज्ञान के परम चरम शिखर पर आरूढ़ होकर उन महामनीषी ने अध्यात्मतत्त्व के मूलभूत क्रमात्मक विज्ञान का जो विहंगावलोकन किया था, वही उनकी प्रोज्ज्वल समन्वयात्मक प्रज्ञा के स्पर्श से परिमार्जित होकर, विभिन्नता में भी एकता का प्रतिफलन कराता हुआ, पश्यन्ति भूमि से वैखरी तक के अवरोहण क्रम में उतरते हुये भी परमेश्वर के ‘परमरस’ की रसमयता को अक्षुण्ण रखता हुआ वाङ्गमयी मूर्ति धारण कर हमारे समक्ष प्रकट हो रहा है।

ज्ञान अनन्त है, तत्जनित अनुभूति का क्षेत्र भी अनन्त है। अनुभूति को भाषा दे सकना अत्यन्त दुर्घट कार्य है। उसमें दृष्टि भेद की सत्ता प्रत्यक्ष होने लगती है, क्योंकि अनुभूति जब भाषा के स्तर में उतरती है, तब मातृकाओं की लीला के कारण अभेद में भी भेददर्शन परिस्फुट हो उठता है। ऐसी स्थिति में उसमें एक समन्वयात्मक तथा भेदहीन अर्थ प्रकट कर सकना सबके लिये शक्य नहीं रह जाता। परन्तु शास्त्ररसिक प्रत्यक्ष ज्ञान सम्पन्न मनीषी परस्परतः विरोधी तथा विच्छिन्नता और तर्कजनित पार्थक्य का आभास देने वाली मतमतान्तर की स्थिति में भी अपनी दृष्टिभंगी से समन्वय के स्वर्णसूत्र का सन्धान प्राप्त कर ही लेते हैं। जिनको दृष्टि प्रत्यक्ष ज्ञान रहित है, अतः भेदात्मक है, उन्हें ही विभिन्न पथ में विभेद, मतवाद तथा अनेकत्व की प्रतीति होती है। क्योंकि जहाँ तक मन की सत्ता है, वहीं तक भेददर्शन तथा विभिन्नता है। “नैको ऋषिर्यस्य वचः प्रमाणं”। परन्तु मन से उत्तीर्ण होते ही समस्त भेदादिक अगाध अपार परमात्म समुद्र में प्रविलीन हो जाते हैं।

अतः यथार्थ ज्ञानोदय और भ्रान्तिहीन समन्वयात्मक दृष्टिभंगी के उदय के लिये व्यष्टि मन की सत्ता को समष्टि मन में निमज्जित कराना ही होगा। इस विन्दु पर भ्रान्ति रहित अनुभूति तथा समन्वयात्मक अध्यात्म का उन्मेष हो सकना संभव हो सकेगा। ऐसी स्थिति प्राप्त होती है एकान्तिक समर्पित साधना द्वारा अथवा परमेश्वर के तीव्रतम शक्तिपात द्वारा, जो अहैतुक होता है। मात्र शुष्क शास्वाध्ययन से इस स्थिति का तथा समन्वयात्मक दृष्टिकोण का विकास कर सकना नितान्त असंभव सा है।

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