Shri Vishnu Maha Puran (श्रीविष्णुमहापुराणम)
₹1,020.00
Author | S.N. Khandewal |
Publisher | Bharatiya Vidya Sansthan |
Language | Hindi & Sanskrit |
Edition | 1st edition, 2024 |
ISBN | 978-93-81189-96-2 |
Pages | 589 |
Cover | Hard Cover |
Size | 14 x 2 x 22 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | BVS0401 |
Other | Dispatched in 1-3 days |
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श्रीविष्णुमहापुराणम (Shri Vishnu Maha Puran) यह प्रसिद्ध है कि विष्णुपुराण के प्रथम वक्ता महर्षि पराशर हैं, जिसे कालान्तर में महर्षि वेदव्यास ने लिपिबद्ध किया था। यह भी कहा जाता है कि इसके सतत पाठ से संस्कृत-ज्ञानरहित साधारण व्यक्ति भी संस्कृत भाषा पर अधिकार प्राप्त कर लेता है, उसको इस पुराण की सहायता से (व्याकरण-अभिधान-आदि का ज्ञान न रहने पर भी) शब्दशास्त्र का अधिकार प्राप्त हो जाता है। अभक्त व्यक्ति भी भक्तिरस का आस्वादन करने लगते हैं।
इसकी श्लोकसंख्या भी विवादित है। उपलब्ध प्रतियों में मात्र ६००० के करीब श्लोक प्राप्त होते हैं; लेकिन वल्लालसेन के अनुसार इसमें २३००० श्लोक का प्रमाण मिलता है। नारदीयपुराण के अनुसार इसमें २४००० श्लोक तथा १२६ अध्याय है। इसकी ३ मुख्य व्याख्या मिलती है; श्रीधर, विष्णुचित्त तथा रत्नगर्भ की व्याख्या उल्लेखनीय है। विद्वान् डा. विल्सन का कथन है कि यही ऐसा एकमात्र पुराण है, जिसमें पुराणों के पाँच सर्वमान्य लक्षण प्राप्त होते हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार इसमें सांख्य दार्शनिक परम्परा की सूचना सर्वत्र मिलती है। इसकी श्लोकसंख्या के विषय में एक मत यह भी है कि विष्णुधर्मोत्तरपुराण के १७ हजार श्लोक को विष्णुपुराण के प्राप्त ६००० श्लोकों से मिला देने पर इस पुराण का २३००० श्लोकों का स्वरूप स्वतः गठित हो जाता है, इस मतानुसार विष्णुधर्मोत्तरपुराण विष्णुपुराण का ही पृथक् हुआ एक अंश है।
इस पुराण का कालमान जो लोग भी निश्चित करते हैं, वे प्रायः पाश्चात्य भ्रमपूर्ण विचारधारा के कारण सभी प्राचीन आर्यसभ्यता तथा आर्यग्रन्थों को ४-५ हजार वर्ष की सीमा में ही बाँध देते हैं। इसलिये उनकी दृष्टि में यह पुराण गुप्तकाल के पश्चात् का है, लेकिन इसमें जो कथा-प्रसंग वर्णित हैं, तदनुसार यह ग्रंथ व्यासदेव के पिता द्वारा कहा गया था। उनका काल महाभारत काल से कुछ पूर्व का ही है। अतः भारतीय गणना से कृष्ण का काल ५००० वर्ष से कुछ पूर्व का माना जाने के कारण इस ग्रंथ का आविर्भाव काल उतना ही प्राचीन माना जाना समीचीन है। यह सब विवेचन करना मेरा उद्देश्य न होकर केवल इस महाग्रंथ को भाषानुसार प्रस्तुत करना-मात्र ही है, जिससे संस्कृत से अनभिज्ञ लोग भी इसका आनन्द उठा सकें।
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