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Hath Yog Pradipika (हठयोग प्रदीपिका)

51.00

Author Dr. Chaman Lal Gautam
Publisher Sanskriti Sansthan
Language Sanskrit & Hindi
Edition 2018
ISBN -
Pages 223
Cover Paper Back
Size 12 x 2 x 17 (l x w x h)
Weight
Item Code SS0003
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Description

हठयोग प्रदीपिका (Hath Yog Pradipika) प्रस्तुत ‘हठयोग प्रदीपिका’ नामक ग्रन्थ भगवान् श्री आदिनाथ द्वारा उपदेशित हठयोग विद्या का लिपिबद्ध संग्रह है, जो कि हठयोग विद्या रूप अथाह समुद्र में डुबकी मारकर अमूल्य निधि को निकाल लाने के समान है। इस ग्रन्थ के द्वारा न जाने कब से योग-जिज्ञासु पुरुष उपकृत होते आये हैं और वर्तमान काल में भी उपकृत हो रहे हैं। इसीलिए इसकी प्रसिद्धि आज भी उतनी ही है, जितनी कि प्राचीन काल में रही है।

श्री आदिनाथ भगवान् शिव का ही एक नाम है, जो वि योगी-समाज में ही नहीं, जन-साधारण में भी अपरिचित नहीं है! उन्हीं आदिनाथ नामधारी शिव ने सांसारिक जीवों को मद-मोह से निकाल कर उनका कल्याण करने के उद्देश्य से जगज्जननी भगवती पार्वती जी के प्रति इस उपदेश को कहा था।

हठयोग विद्या, वह विद्या है जिसका सेवन करके अनेकानेक महायोगी पुरुष संसार-सागर से सहज ही पार हो गए। पुराणों के वर्णनानुसार सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने भी ब्रह्मपद की प्राप्ति के लिए इसी विद्या का आश्रय लिया था और ब्रह्मा ही नहीं, विष्णु, शिव, नारद, याज्ञवल्क्य, वसिष्ठ आदि अनेक देवता, ऋषि-महर्षि आदि सभी इसका आश्रय लेकर अपने ऐश्वर्य की वृद्धि करते रहे हैं। इसीलिए बड़े-बड़े योगाचार्यों और ज्ञानी पुरुषों ने इसकी प्रामाणिकता स्वीकार की है और वे इसके उपदेशानुसार आचरण में प्रवृत्त होते रहे हैं।

यह भी मान्यता है कि हठयोग विद्या को सर्व प्रथम मत्स्येन्द्रनाथ और गोरक्षनाथ ने भगवान् आदिनाथ के श्रीमुख से श्रवण किया था और इस श्रवण किये हुए योग का परम्परागत पालन होता रहा तथा समय-समय पर सार रूप में जिज्ञासुओं के समक्ष आता रहा। अधिक कठिन और निरर्थक अंशों का त्याग होते-होते अन्त में इस ने ‘हठयोग प्रदीपिका’- का रूप ग्रहण किया और तब गोरक्षनाथ जी की कृपा से उन्हीं के अनुसार इसका सारभूत एवं उत्कृष्ट रूप जिज्ञासुजनों के हितार्थ प्रकट हुआ।

‘हठयोग प्रदीपिका’ नामक इस ग्रन्थ के चार विभाग कर प्रथम उपदेश से चतुर्थ उपदेश पर्यन्त चार उपदेशों में. प्रस्तुत मनुष्यों के लिए इसका समझना सुगम नहीं था और अब तक इसके अनुवाद या टीकाएँ भी कुछ ऐसी भाषा में थी, जो कि आज-कल की हिन्दी से कुछ पृथक्-सी प्रतीत होती है। उसे पढ़कर कभी-कभी तो पाठक को एक उलझन-सी अनुभव में आती है, और वह यथार्थ निष्कर्ष से वंचित ही रह जाता है।

हमने इसी कठिनाई का अनुभव करके, इसकी टीका वर्तमान सरल सुबोध हिन्दी में करके पाठकों के समक्ष प्रस्तुत की है और साथ ही सहज ही समझ में आ सके, इस उद्देश्य से प्रत्येक श्लोक की विस्तृत व्याख्या भी संयुक्त कर दी है। इस व्याख्या में श्रुतियों, उपनिषदों, शास्त्रों एवं अन्यान्य ग्रन्थों का मनन करके जहाँ आवश्यक समझा, उनके उद्धरण भी दे दिये हैं, जिससे कि विषय वस्तु को अत्यन्त सुगमता से समझा जा सके। व्याख्या के इस कार्य में हमें कविराज श्री दाऊदयाल गुप्त से जो अमूल्य सहयोग मिला है उसके लिए वे बधाई के पात्र हैं। हमें आशा ही नहीं, पूर्ण विश्वास है कि हमारा यह प्रयास योग-जिज्ञासुओं और साधारण पाठकों के लिए भी अत्यन्त उपयोगी एवं कल्याणकारी सिद्ध होगा।

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