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Shri Netra Tantram (श्रीनेत्रतन्त्रम्)

850.00

Author Radhe Shyam Chaturvedi
Publisher Chaukhamba Surbharati Prakashan
Language Sanskrit & Hindi
Edition 2023
ISBN 978-9382443-33-9
Pages 550
Cover Hard Cover
Size 14 x 2 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code CSP0882
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Description

श्रीनेत्रतन्त्रम् (Shri Netra Tantram) ‘तन्त्र’ शब्द विस्तार का बोधक है- ‘तनु’ विस्तारे। प्रश्न है कि यह विस्तार किसका ? कौन है जिसका विस्तार वाञ्छित है? उस विस्तार का स्वरूप क्या है? विस्तृत होने की प्रक्रिया या पद्धति क्या है? इस विस्तारण क्रिया का साध्य और साधन क्या है? इन समस्त प्रश्नों का उत्तर ही तन्त्र है। एक अन्य व्याख्या के अनुसार ‘तन्त्र’ शब्द नियन्त्रण का भी बोधक है- ‘तत्रि’ बन्धने। बिना नियन्त्रण प्रतिबन्ध या संयम के विस्तार सम्भव नहीं है। इसलिए तन्त्र जहाँ एक ओर आत्मा के विस्तार की बात करता है वहीं दूसरी ओर इस विस्तार की प्राप्ति के लिये नियमों का प्रावधान भी करता है। इस विस्तार के दो आयाम है- ‘तत्’ और उससे भिन्न समस्त पदार्थ ‘त्वम्’। भगवान् शङ्कराचार्य ने अध्यासभाष्य के प्रारम्भ मे ‘युष्मदस्मत्प्रत्ययगोचरयोः विषयविषयिणोः तमः – प्रकाशवद् विरुद्धस्वभावयोरितरेतरभावानुपपत्तौ सुतरां तद्धर्माणामितरेतरभावानुपपत्तिः’ कह कर ‘तत्’ और ‘त्वम्’ विषयों का अन्तर स्पष्ट किया है। ‘तत्’ अर्थात् परमतत्त्व का ‘त्वम्’ के रूप में विस्तृत अर्थात् आभासित होना और पुनः ‘त्वम्’ का ‘तत्’ के रूप में विस्तृत अर्थात् स्वरूपस्थ होना ही तन्त्र है।

विश्व की जो सर्वोच्च सत्ता है तान्त्रिक दृष्टि से सामान्यतया उसको परमशिव के नाम से जाना जाता है। जिस प्रकार अग्नि में दाहकता शक्ति है और बिना इस दाहकता शक्ति के अग्नि की सत्ता या कल्पना सम्भव नहीं है अथवा जैसे सूर्य की उष्ण रश्मियाँ है और बिना उनके सूर्य की सत्ता या कल्पना असम्भव है, उसी प्रकार परमशिव की सत्ता या कल्पना बिना परमाशक्ति के सम्भव नहीं है । शक्ति और शिव का यामल रूप ही ‘परमशिव’ पद का वाच्य है। परम शिव या परमाशक्ति एक ही परमतत्त्व के दो नाम हैं। जब हम शक्ति को गौण और शिव को मुख्य दृष्टि से देखते हैं तब उनका नाम परमशिव होता है। उस स्थिति में शक्ति इसमें प्रच्छन्न या सुप्त रहती है। परमा शक्ति कहने पर शक्ति मुख्य होती है और शिवभाव गौण हो जाता है अर्थात् इस दशा में शिव तत्त्व प्रच्छन्न या सुप्त रहता है। अपने मूल रूप में दोनों एक ही हैं; कोई किसी से कभी भी रहित या पृथक् नहीं है। ऊपर जिस यामल स्वरूप की चर्चा की गयी है वह परमशिव की विश्वोत्तीर्ण दशा है। इस दशा में प्रकाशस्वरूप शिव के अन्दर विमर्शरूपा शक्ति प्रच्छन्न या सुप्त रहती है फलतः यह विश्व उस परमेश्वर के अन्दर मयूराण्डरसन्यायेन अनुद्भूत स्थिति में रहता है।

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