Loading...
Get FREE Surprise gift on the purchase of Rs. 2000/- and above.

Shri Tantraloka Set Of 3 Vols. (श्रीतन्त्रालोकः 3 भागो में)

1,050.00

Author Sri Krishnananda Sagar
Publisher Acharya Krishnanand Sagar
Language Sanskrit & Hindi Translation
Edition 1st edition,1984
ISBN -
Pages 1705
Cover Hard Cover
Size 22 x 9 x 14 (l x w x h)
Weight
Item Code IM0070
Other Old & Rare Book

 

9 in stock (can be backordered)

Compare

Description

श्रीतन्त्रालोकः 3 भागो में (Shri Tantraloka Set Of 3 Vols.) निगम की दृष्टि में आगम का स्थान : निगम और आगम के द्वारा आध्यात्मिक तत्त्वज्ञान का मार्ग प्रशस्त हुआ है। समस्त वेदराशि कर्मकाण्ड, उपासनाकाण्ड और ज्ञानकाण्ड में विभाजित हुई है। किन्तु वेदों का तात्पर्यार्थ मुख्यरूप से तत्त्वज्ञान के प्रति- पादन में ही अभिहित है। अन्य सभी बातें तो गौण मानी जायेंगी। यद्यपि वेदों का ज्ञान-वैभव अपने आप में परिपूर्ण है, किन्तु दार्शनिक रीति से विचार करने पर यही सिद्ध होता है कि जो निगम-वेदशास्त्र से कार्य अवशिष्ट रहा है, वह अवशिष्ट कार्य आगम-तन्त्रशास्त्र ने पूर्ण किया है। इसलिए आगमशास्त्र को निगमशास्त्र का पूरक मानने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है। वेदों का प्रादुर्भाव परम ब्रह्म परमात्मा से हुआ है और इस विषय में यजुर्वेद का प्रमाण भी प्राप्त होता है-

‘तस्माद्यज्ञात् सर्वहुतः ऋचः सामानि जज्ञिरे।
छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत।।’ (३१।७)

उस सर्वज्ञ परमात्मा से ऋग्, यजुः, साम और अथर्ववेद उत्पन्न हुए हैं। किसी व्यक्ति द्वारा वेदों का निर्माण नहीं हुआ है। क्योंकि ‘ऋषयो मन्त्र- द्रष्टारः’ ऋषि लोग तो मात्र मन्त्र के द्रष्टा ही थे। ‘यस्य निःश्वसितं वेदाः’ यह वेद राशि तो परमेश्वर के श्वास-निःश्वास की भाँति ही है।

अच्छा तो, परमात्मा द्वारा प्रणीत वेदराशि मान ली जाती है किन्तु आगमशास्त्र की उत्पत्ति किससे मानी जाय ? उत्तर यही है कि तन्त्रशास्त्र वेद के पूरक हैं इसमें किञ्चित् भी सन्देहास्पद नहीं है। विचार-विमर्श की दृष्टि से अथवा साधना की परम्परा के रूप में तान्त्रिक दर्शन वेदराशि के समकालीन या इससे भी प्राचीन हो सकता है। क्योंकि इस विषय में श्रीपुष्पदन्ताचार्य के वाक्यों का उल्लेख मिलता है- ‘भवः शर्वो रुद्रः पशुपतिरथोग्रः सहमहांस्तथा भीमेशानाविति यदभिधानाष्टकमिदम्। अमुष्मिन् प्रत्येकं प्रविचरति देव श्रुतिरपि’ इत्यादि। यह तान्त्रिक दर्शन की विचारधारा वैदिक परम्परा से भी प्राचीन है; क्योंकि वेदों में सर्वत्र शिव के विभिन्न नामों का संकेत प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। इस दर्शन की परम्परा के आद्य प्रवर्तक भगवान् शंकर ही हैं। यही बात श्रीसोमानन्दपाद की ‘शिवदृष्टिः’ से सिद्ध होती है कि स्वयं शिव ने दुर्वासा मुनि को इसके प्रचारार्थ आदेश दिया था। इसलिए कि कालक्रम से इस तान्त्रिक परम्परा का सर्वथा जनमानस से लोप हो गया था। भगवान् शिव का आदेश पाकर दुर्वासा मुनि ने इस दार्शनिक परम्परा को पुनः जीवित कर प्रतिष्ठित किया है। हमने इस दर्शन की परम्परा का “ईश्वरप्रत्यभिज्ञा” की प्रस्तावना में यथावत् उल्लेख किया है।

यह शैवाद्वैत शास्त्र की लिखित रूप से परम्परा श्रीवसुगुप्त एवं श्रीसोमानन्दपाद से प्रारम्भ हुई है। किंवदन्ती है कि भगवान् परमशिव द्वारा स्वप्न में श्रीवसुगुप्त को शिवसूत्रों का ज्ञान प्राप्त हुआ था। इसके अनन्तर ही श्रीवसुगुप्त द्वारा ‘स्पन्दकारिका’ आदि ग्रन्थों का निर्माण हुआ है। इस प्रकार इस तान्त्रिक दर्शन की परम्परा उत्तरोत्तर पुष्पित एवं पल्लवित हुई है। श्रीउत्पलदेव ने ‘शिवदृष्टिः’ के आधार पर ‘ईश्वरप्रत्यभिज्ञा’ आदि ग्रन्थों की रचना की है। श्री आचार्य अभिनवगुप्त द्वारा सर्वाधिक इस तान्त्रिक दर्शन का विकास हुआ है। इन्होंने तन्त्रालोक जैसे विशाल-काय ग्रन्थों का निर्माण कर इस शैवाद्वैत शास्त्र को अमर बना दिया है। इनका काल दसवीं शताब्दी के पूर्व माना जाता है।

Reviews

There are no reviews yet.

Be the first to review “Shri Tantraloka Set Of 3 Vols. (श्रीतन्त्रालोकः 3 भागो में)”

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Quick Navigation
×