Shri Harivansh Puran (श्रीहरिवंशपुराण)
₹520.00
Author | Pt. Ramnarayan Datt Shastri Pandey |
Publisher | Gita Press, Gorakhapur |
Language | Sanskrit & Hindi |
Edition | 41 edition |
ISBN | - |
Pages | 1422 |
Cover | Hard Cover |
Size | 19 x 6 x 27 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | GP0080 |
Other | Code - 38 |
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श्रीहरिवंशपुराण (Shri Harivansh Puran) हरिवंश वेदार्थप्रकाशक महाभारत ग्रन्थका ही अन्तिम पर्व है। आदिपर्वके अनुक्रमणिकाध्यायमें महाभारतको सौ पर्वोवाला ग्रन्थ बतलाया गया है। उसके अन्तिम तीन पर्व इस हरिवंश-ग्रन्थमें ही सम्मिलित हैं। यह बात अनुक्रमणिकाध्यायमें स्पष्टरूपसे निर्दिष्ट है-
हरिवंशस्ततः पर्व पुराणं खिलसंज्ञितम् । विष्णुपर्व शिशोश्चर्या विष्णोः कंसवधस्तथा ॥
भविष्यं पर्व चाप्युक्तं खिलेष्वेवाद्भुतं महत् । एतत्पर्वशतं पूर्ण व्यासेनोक्तं महात्मना ॥ (महा० आदि०, अध्याय २।८२-८३)
जैसे वेदविहित सोमयाग उपनिषदोंके बिना साङ्ग सम्पन्न नहीं होता, वैसे ही श्रीमहाभारतका पारायण भी हरिवंश-पारायणके बिना पूर्ण नहीं होता। किंतु हरिवंशका पारायण गीता आदिकी तरह स्वतन्त्र भी किया जाता है। इस तरह यह ‘पुराणं खिलसंज्ञितम्’ आदिपर्व (२। ८२) के आधारपर ‘हरिवंशपुराण’ तथा ‘हरिवंशपर्व’ इन दोनों ही नामोंसे विद्वानोंके बीच विख्यात है। पुत्रप्राप्तिकी कामनासे हरिवंश-श्रवणकी परम्परा भारतमें चिरकालसे प्रचलित है। विशेषकर यदि जन्मकुण्डलीमें संतानभाव सूर्यके द्वारा दृष्ट, आविष्ट या बाधित हो तो हरिवंश-श्रवण ही उसका प्रतिकार बतलाया गया है-
वंशान्तो हरिरुष्णगौ त्रिपुराहाब्जे भूसुते रुद्रियं सौम्ये सम्पुटकांस्यपात्रविधिवज्जीवे च पित्र्यातिथिः।
शुक्ने गोप्रतिपालनं च कथितं मन्दे च मृत्युञ्जयः कन्यादानभुजङ्गकेतुकपिलाः संतानसौख्यप्प्रदाः ॥ (बृहत्पाराशरहोराशास्त्र, पूर्वखण्ड १६। १४७)
श्रवणं हरिवंशस्य कर्तव्यं च यथाविधि। जुहुयाच्च दशांशेन दूर्वामाज्यपरिप्लुताम् ॥ (मन्त्रमहार्णव, वृद्धसूर्यार्णव)
यों भी इसके श्रवणकी बहुत महिमा है। जो फल अठारहों पुराणोंके सुननेसे मिलता है, वह अकेले हरिवंशके सुननेसे हो जाता है-
अष्टादशपुराणानां श्रवणाद् यत्फलं लभेत् । तत्फलं समवाप्नोति वैष्णवो नात्र संशयः ॥ (भविष्यपर्व १३५।४)
भगवद्भक्ति तथा कथानककी दृष्टिसे भी इसका बड़ा महत्त्व है। भगवान् श्रीकृष्णसे सम्बद्ध तथा अन्यान्य अगणित कथाएँ इसमें ऐसी हैं, जो अन्यत्र नहीं आयीं। पारायण-क्रमसे इसके नवाह्नका ही विधान है। उसकी पूरी विधि इस ग्रन्थके अन्तमें दे दी गयी है। केवल नवाह्र-पारायणके विश्रामस्थल नहीं दिये गये हैं। वह ‘कृत्यसार-समुच्चय’ ग्रन्थके २२५ वें पृष्ठपर इस प्रकार बतलाया गया है
प्रथमे यदुवंशस्य कीर्तनावधि कीर्तयेत् । द्वितीयेऽह्नि पठेद् विद्वान् धेनुकस्य वधावधि ॥
जरासंधवधं यावत् तृतीयेऽह्नि विचक्षणः । पारिजातस्य हरणं चतुर्थेऽह्नि प्रकीर्तयेत् ॥
सैन्यभङ्गः शम्बरस्य पञ्चमेऽह्नि प्रयत्नतः । जनमेजयस्य वंशस्य भविष्यस्य च वर्णनम् ॥
षष्ठेऽह्नि तावद्वक्तव्यं पारायणशुभेच्छुना । सप्तमे दैत्यसैन्यानां विस्तारो यावदेव हि ॥
घण्टाकर्णसमाधिस्तु अष्टमेऽह्नि प्रयत्नतः । नवमेऽह्नि समाप्तिः स्यात् पारायण उदाहृतः ।।
इसके अनुसार प्रतिदिन क्रमशः हरिवंशपर्वके ३५, विष्णुपर्वके १३, ४३, ७३, १०६ एवं भविष्यपर्वके २, ५०, ८० तथा १३५ वें अध्यायपर विश्राम करना चाहिये। एक दूसरा क्रम इस प्रकार भी बतलाया गया है-
प्रथमे कृष्णजननं द्वितीये धेनुकार्दनम् । तृतीये कुण्डिनपुरे रुक्मिणीहरणं तथा ॥
चतुर्थे षट्पुरवधमार्यास्तोत्रं च पञ्चमे । मधोश्चरित्रं षष्ठे वै सप्तमे पावकस्तुतिः ॥
अष्टमे पौण्ड्रकवधो नवमेऽह्नि समापयेत् । वाचयेदनया रीत्या हरिवंशं यथाक्रमम् ॥
अर्थ स्पष्ट है। इस क्रममें थोड़ा-सा अन्तर है। तदनुसार प्रतिदिन हरिवंशपर्वके ३५, विष्णुपर्वके १३, ४३, ८२, १२० तथा भविष्यपर्वके १३, ६२, १०१ तथा १३५ वें अध्यायपर विश्राम करना चाहिये। सुतरां भगवान्की कृपासे महाभारतके साथ हरिवंशका प्रकाशन-कार्य पूरा हुआ। धार्मिक सदाचार-परायण जनताके सुविधार्थ यह उसकी सचित्र, सटीक तथा सजिल्द प्रति अलगसे प्रकाशित की जा रही है। इसके अन्तमें संतान-गोपाल-मन्त्रकी अनुष्ठान-विधि, इसके कई प्रकार, संतान-गोपाल-स्तोत्र, यन्त्र तथा विष्णु-शतनाम-स्तोत्र-ये सब सटीक दे दिये गये हैं। आशा है प्रेमी पाठक पाठिकाएँ इन सबोंसे लाभ उठायेंगे। शिवमिति दिक्।
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